________________
१०८
जैन दर्शन में सभ्यक्त्व का स्वरूप . ही कहते हैं कि-निश्चय से जो वास्तविक मुनिपना है वही सम्यग है
और जो सम्यग् है वह मुनिपना है एवं मुनिरहित का सम्यक्त्व यानि कि अविरति या देशविरति का सम्यक्त्व निश्चय सम्यक्त्व नहीं किंतु निश्चय सम्यक्त्व का कारण है।'
यहाँ ग्रन्थकार ने स्पष्ट किया है कि श्रावकों को अर्थात् श्रमणोपासकों जो सम्यक्त्व होता है वह व्यवहार से होता है और मुनि को निश्चय रूप होता है। हाँ, व्यवहार सम्यक्त्व निश्चय का कारण है। आगे ग्रन्थकर्ता तत्त्वार्थ-सूत्र के अनुसार सम्यक्त्व का लक्षणश्रद्धान का निरूपण करते हैं। - इस प्रकार इस ग्रन्थ में सम्यक्त्व का निरूपण कर के सम्यक्त्व के भेद उपशम आदि तीन के अलावा कारक आदि भी है। एवं दस : प्रकार की रुचि भी है। तथा साथ ही प्रशम, संवेग, निर्वेद, अनुकंपा
और आस्तिक्य भी श्रद्धान के अलावा सम्यक्त्व के लक्षण है । ग्रन्थिभेदन के पश्चात् यह सम्यक्त्व होता है। यहाँ एक बात पर ध्यान केन्द्रित होता है कि तत्त्वार्थ के टीकाकार पूज्यपाद ने उपर्युक्त लक्षणों में से चार को स्वीकार किया है। जब कि यहाँ स्वयं ग्रन्थकार ने पाँच लक्षणों को स्वीकार किया है। दोनों ग्रन्थों का अवलोकन करने पर हमें ऐसा ज्ञात होता है कि तत्त्वार्थ-सूत्र में जो विषय अधूरा रह गया था उसी का समावेश मानो इस सूत्र में किया गया हो। उसी का पश्चात्वर्ती यह सूत्र है।
१. जं मोणं तं सम्मं जं सम्मं तमिह होइ मोणं ति।
निच्छयओ इयरस्स उ सम्म सम्मत्त हेऊ वि । ६१ ॥ वही