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अध्याय २
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भी समय अपराधी मनुष्य पर भी क्रोध नहीं करता, उपशम भाव के कारण ।'
वह जीव राजेन्द्र और देवेन्द्र के सुख को भी दुःख रूप मानकर संवेग के कारण मोक्ष के सिवाय अन्य किसी की भी अभिलाषा नहीं करता। यह जीव नारक तिर्यंच, मनुष्य और देव के भवों में दुःखी होता है इस प्रकार निवेद के कारण संसार में ममता रूपी विष के आवेश से रहित होने पर भी परलोक के अनुकूल क्रिया नहीं करता। इसी प्रकार वह जीव भवसागर में दुःख से पीड़ित जीव समूह को देखकर सामान्य रूप से द्रव्य से और भाव से स्वशक्ति अनुसार दया करता है। वह जीव शुभ परिणाम वाला होता है और कांक्षा आदि अतिचारों से रहित एवं जिनेश्वर भगवान् ने कहा है वही सत्य है उस में संशय नहीं करता है।'
इस प्रकार के परिणाम वाले जीव को जिनेश्वर भगवान् ने सम्यग्दृष्टि कहा है। ऐसा जीव थोड़े ही समय में भवसागर से पार हो जाता है।६ . - इस प्रकार का कथन कर के ग्रन्थकार आचारांग सूत्र के अनुसार .१. पयईइ व कम्माणं वियाणि वा विवागमसुहं ति।
' अवरुद्धे वि न कुप्पइ उवसमओ सव्वकालं पि। ५५ वही २. नर विबुहेसर सुक्ख दुक्ख चिय भावओ य मन्नतो।
संवेगओ न मुक्खं मुत्तूणं किंचि पत्थेइ । ५६ ॥ वही ३. नारयतिरियनरामरभवेसु निव्वेयओ वसइ दुक्खं ।
अकयपरलोयमग्गो ममत्तविस वेगरहिओ वि। ५७ ।। वही ४. दठूण पाणिनिवहं भीमे भवसागरंमि दुक्खत्तं । - अविसेसओ णुकंपं दुहावि सामथओ कुणइ । ५८ ॥ वही ५. मन्नइ तमेव सच्चं निस्तकं जं जिणेहिं पन्नत्तं ।
सुहपरिणामो सव्वं कंखाइविसुत्तियारहिओ। ५९ ॥ वही ६. एवंविहपरिणामो सम्मट्ठिी जिणेहिं पन्नत्तो।
पसो य भवसमुदं लंघइ थोवेण कालेण । ६० ॥ वही