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________________ गृहस्था अप्येनं पूजयन्ति, येन जानन्ति तादृशम् ।।४५।। भावार्थ: पूर्वोक्त गुणयुक्त साधु के गुणसंपत्ति से युक्त संयम चारित्र को तुम देखो, कि साधुओं से सेवित, विस्तीर्ण और मोक्षार्थ सहित है । सूत्रकार श्री कहते हैं कि उसका वर्णन मैं करता हूँ तुम सुनो ।। ४३ ।। अप्रमादि गुण को देखनेवाला और प्रमादादि अवगुण का त्यागी, ऐसे शुद्धाचार का पालन करनेवाला संवर की आराधना मरणान्त तक करता है ॥४४॥ ऐसे गुण युक्त साधु आचार्यादि की सेवा करता है । उनकी आज्ञा का पालन करता है और उसके शुद्ध आचार को जानते हुए गृहस्थ उसकी पूजा करते हैं। अर्थात् उसका मान सन्मान करते हैं ॥ ४५ ॥ किल्बिष देव कौन बनता है? तवतेणे वयतेणे, रूवतेणे अ जे नरे । आयार भावतेणे अ, कुव्वई देवकिव्विस || ४६ ॥ लद्दूणवि देवत्तं, उववन्नो देवकिव्विसे । तत्थावि से न याणाइ, किं मे किच्चा इमं फलं ॥ ४७ ॥ तत्तोवि से चइत्ताणं, लब्भिही एलमूअगं । नरयं तिरिक्खजोणिं वा, बोही जत्थ सुदुल्लहा ||४८|| सं.छा.ः तपः स्तेनो वचः स्तेनो, रूपस्तेनश्च यो नरः । आचारभावस्तेनश्च, करोति देवकिल्बिषम् ॥४६॥ लब्ध्वापि देवत्वं, उपपन्नो देवकिल्बिषे । तत्राप्यसौ न जानाति, किं मे कृत्वेदं फलम् ॥४७॥ ततोऽप्यसौ च्युत्वा, लप्स्यते एलमूकताम्। नरकं तिर्यग्योनिं वा, बोधिर्यत्र सुदुर्लभा ॥ ४८ ॥ भावार्थ ः तप, वचन, रुप, आचार एवं भाव चोर ये पांचों प्रकार के चोर चारित्र का शुद्ध पालन करते हुए भी किल्बिष देव भव में उत्पन्न होते हैं, किल्बिष देव भव प्राप्त हो जाने के बाद वहां भी निर्मल अवधिज्ञान न होने से वे यह नहीं जानते कि मैंने ऐसा कौन- -सा अशुभ कार्य किया जिससे मुझे किल्बिष देव भव मिला। वह साधु वहां से देव भवायु पूर्णकर मनुष्यादि भव में बकरे के जैसा मुकपना प्राप्त करेगा और परंपरा से नरकं तिर्यंचादि की योनि को प्राप्त करेगा। जहां जैनधर्म की, सम्यग्दर्शन की प्राप्ति दुर्लभ है ।।४६-४८ ॥ आगमोक्त तप न कर स्वयं को तपस्वी मानने मनवानेवाला तपचोर, आगमोक्त ज्ञान न होने पर एवं स्वयं शास्त्रोक्त व्याख्याता न होने पर भी स्वयं को ज्ञानी एवं व्याख्याता मानने, मनवानेवाला वचनचोर, स्वयं राजकुमार आदि न होते हुए भी श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 87
SR No.002252
Book TitleSarth Dashvaikalik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size15 MB
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