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________________ तं अइकमित्तु न पविसे, न चिट्ठे चक्खुगोयरे । एगंतमवकमित्ता, तत्थ चिट्ठिज्ज संजए ||११|| वणीमगस्स वा तस्स दायगस्सुभयस्स वा । अप्पत्तिअं सिआ हुज्जा, लहुत्तं पवयणस्स वा ||१२|| सं.छा.: अर्गलां परिघं द्वारं, कपाटं वाऽपि संयतः। अवलम्ब्य न तिष्ठेद्, गोचराग्रगतो मुनिः ||९|| श्रमणं ब्राह्मणं वापि, कृपणं वा वनीपकम् । उपसङ्क्रामन्तं भक्तार्थं, पानार्थं वा संयतः ॥१०॥ तमतिक्रम्य न प्रविशेन्नापितिष्ठेच्चक्षुर्गोचरे । एकान्तमवक्रम्य, तत्र तिष्ठेत्संयतः ॥ ११ ॥ वनीपकस्य वा तस्य, दायकस्योभयस्य वा। अप्रीतिः स्याद्भवेद्, लघुत्वं प्रवचनस्य वा ।।१२।। भावार्थ : गोचरी गये हुए साधु को गृहस्थ के घर के द्वार, शाख, अर्गला, फलक, दिवार आदि का सहारा लेकर खड़ा नहीं रहना । गृहस्थ को शंका हो जाने के कारण. प्रवचन की लघुता, जीव विराधना आदि होने का संभव है। श्रमण, ब्राह्मण, कृपण, याचक इन चार में से कोई भी अर्थात् गृहस्थ के घर पर मांगनेवाला, याचना करनेवाला कोई भी खड़ा हो, अंदर जा रहा हो या आ रहा हो तो उसका उल्लंघन करके गृहस्थ के घर में न जाना एवं उन याचकादि की दृष्टि में न आये ऐसे एकान्त स्थल में खड़े रहना। ऐसा न करे तो लेने-देने वाले दोनों को अप्रीति का कारण एवं जिनशासन की लघुता निंदादि का कारण होता है। (अगर वे मुनि को देख लें एवं वे कह दे महाराज आप पधारो एवं दाता भी बुलावे तो जाने में कोई दोष नहीं) ।।९-१२ ।। पडिसेहिए व दिने वा, तओ तम्मि नियत्तिए । उवसंकमिज्ज भत्तट्ठा, पाणद्वार व संजर || १३ || सं.छा.ः प्रतिषिद्धे वा दत्ते वा, ततस्तस्मिन् निवर्त्तिते । उपसङ्क्रामेद्भक्तार्थं पानार्थं वाऽपि संयतः ।।१३।। भावार्थ ः याचकादि को गृहस्थ ने दे दिया हो या निषेधकर दिया हो एवं वे घर से लौट गये हो तो साधु गृहस्थ के घर में आहार पानी के लिए जावें ||१३|| वनस्पतिकाय की जयणा : उप्पलं परमं वावि, कुमुअं वा मगदंति अं| अन्नं वा पुप्फसच्चित्तं, तं च संलुंचिआ दर || १४ || तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पिअं । श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 80
SR No.002252
Book TitleSarth Dashvaikalik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size15 MB
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