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आखिरी (वृद्ध) अवस्था में भी जिन पुरुषों को तप, संयम, क्षमा और ब्रह्मचर्य प्रिय है,वे संयममार्ग में रहते हुए देवविमानों को अवश्य प्राप्त करते हैं। मतलब यह कि वृद्धावस्था में दीक्षा लेकर उसको अच्छी रीति से पालन करनेवाला पुरुष देवगति में जरुर जाता है।
इच्चेयं छज्जीवणि समविट्ठी सया जये। दुल्लहं लहितु सामण्णं, कम्मुणा न विराहिज्जासि ||२९||
|| ति बेमि ॥ सं.छा.ः इत्येतां षड्जीवनिकायिकां सम्यग्दृष्टिः सदा यतः।
दुर्लभं लब्ध्वा श्रामण्यं कर्मणा न विराधयेत् ।।२९।। इति ब्रवीमि।। .. शब्दार्थ - (सया) निरन्तर (जए) जयणा रखते हुए (सम्मद्दिष्टि) सम्यग्दृष्टि पुरुष (दुल्लहं) कठिनता से मिलनेवाले (सामण्णं) चारित्र को (लभित्तु) पा करके (इच्चेयं) इस प्रकार चौथे अध्ययन में कही गयी (छज्जीवणिय) षट्कायिक जीवों की (कम्मणा) मन, वचन,काया इन योग संबन्धी अशुभ क्रिया सेन (विराहिज्जासि) विराधना नहीं करे (त्ति) ऐसा (बेमि) मैं अपनी बुद्धि से नहीं, किन्तु तीर्थंकर आदि के उपदेश से कहता हूँ। . .
हमेशा जयणा से रहनेवाले सम्यगदृष्टि पुरुष अत्यन्त दुर्लभ चारित्र-रत्न को. पाकर चौथे अध्ययन में बतलायी हुई षड्जीवनिकाय संबन्धी जयणा की मन, वचन, काया से विराधना नहीं करें।
- आशय यह है कि - साधु अथवा साध्वी चौथे अध्ययन में कहे अनुसार पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय,वायुकाय,वनस्पतिकाय और त्रसकाय इन षड्जीवनिकाय की जयणा खुद रक्खे, दूसरों के पास जयणा रखावे और जयणा रखनेवालों को मनवचन-काय इन तीन योगों से अच्छा समझे, लेकिन षड्जीवनिकाय की किसी प्रकार से विराधना नहीं करें।
आचार्य श्रीशय्यंभवस्वामी फरमाते हैं कि हे मनक! षड्जीवनिकाय का स्वरूप और उसकी जयणा रखने का उपदेश जैसा भगवान् श्रीमहावीरस्वामी ने सुधर्मास्वामी को और सुधर्मास्वामी ने अन्तिम केवली जम्बूस्वामी को कहा, उसी प्रकार मैं तुझको कहता हूँ।
इति षड्जीवनिका नामकचतुर्थमध्ययनं समाप्तम्।।
५ पिण्डैषणा-अध्ययनं : प्रथम उद्देशकः . संबंध:
__चतुर्थ अध्ययन में षड्जीवनिकाय का स्वरूप बताया है। षड्जीवनिकाय की रक्षा करने का उपदेश दिया है। षड्जीवनिकाय की रक्षा में मुख्य साधन देह हैं। देह की
श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 52