SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 52
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अभ्यन्तर और बाह्य संयोगों का त्याग करने से मनुष्य, द्रव्य भाव से मंडित होकर यानी दीक्षा लेकर साधु होता है और साधु होकर उत्तम संवर और सर्वोत्तम जिनेन्द्रोक्त धर्म को फरसता है। मतलब यह कि साधु होने बाद ही मनुष्य, उत्तम संवरभाव और धर्म को प्राप्त करता है। जया संवरमुट्ठि, धम्मं फासे अणुत्तरं । तया धुणइ कम्मरयं, अबोहिकलुसं कडं ||२०|| सं.छा.ः यदा संवरमुत्कृष्टं धर्मं स्पृशत्यनुत्तरम्। तदा धुनाति कर्म्मरजः, अबोधिकलुषं कृतम्॥२०॥ शब्दार्थ - (जया) जब (संवरमुक्किट्ठ) उत्तम संवर भाव और (अणुत्तरं ) सर्वोत्तम (धम्मं ) - जिनेन्द्रोक्त धर्म को (फासे) फरसता है (तया) तब (अबोहिकलुसं कडं) मिथ्यात्व आदि से किये हुए (कम्मरयं) कर्म-रज को (धुणइ) साफ करता है। जया धुणइ कम्मरयं, अबोहिकसं कडं । तया सव्वृत्तगं नाणं, दंसणं चाभिगच्छइ ||२१|| सं.छा.ः यदाधुनाति कर्म्मरजः, अबोधिकलुषं कृतम् । तदा सर्वत्रगं ज्ञानं, दर्शनं चाभिगच्छति ।। २१ ।। शब्दार्थ - (जया) जब (अबोहिकलुसं कडं) मिथ्यात्व आदि से किये हुए (कम्मरयं) -को (इ) साफ करता है (तया) तब (सव्वत्तगं) लोकालोकव्यापी (नाणं) . ज्ञान (च) और (दंसणं) दर्शन को (अभिगच्छइ) प्राप्त करता है। उत्तम संवरभाव और जिनेन्द्रोक्त धर्म की स्पर्शना होने से मनुष्य, मिथ्यात्व, अविरति, कषाय, योग आदि से संचित की हुई कर्म रूपी धूली को साफ करता है और बाद में उसको केवलज्ञान तथा केवलदर्शन प्राप्त होता है। जया सव्वत्तगं नाणं, दंसणं चाभिगच्छइ । तया लोगमलोगं च, जिणो जाणइ केवली ||२२|| .सं.छा.ः यदा सर्वत्रगं ज्ञानं, दर्शनं चाभिगच्छति। तदा लोकमलोकं च, जिनो जानाति केवली ॥२२॥ शब्दार्थ - (जया) जब (सव्वत्तगं) लोकाऽलोकव्यापी (नाणं) ज्ञान (च) और (दंसणं) दर्शन को (अभिगच्छइ) प्राप्त करता है (तया) तब (जिणो) रागद्वेष को जीतनेवाला (केवली) केवलज्ञानी पुरुष (लोगं) चउदह राज प्रमाण लोक को (च) और (अलोगं) अलोकाकाश को (जाणइ) जानता है। जया लोगमलोगं च, जिणो जाणइ केवली । तया जोगे निरंभित्ता, सेलेसिं पडिवज्जइ || २३ || सं.छा.ः यदा लोकमलोकं च, जिनो जानाति केवली । श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 49
SR No.002252
Book TitleSarth Dashvaikalik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy