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________________ सं.छा.ः स भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा संयतविरत-प्रतिहत-प्रत्याख्यात-पापकर्मा दिवा वा रात्रौ वा एको वा परिषद्गतो वा सुप्तो वा जाग्रद्वा स बीजेषु वा बीजप्रतिष्ठितेषु वा रूढेषु वा रूढप्रतिष्ठितेषु वा जातेषु वा जातप्रतिष्ठितेषु वा हरितेषु वा हरितप्रतिष्ठितेषु वा छिन्नेषु वा छिन्नप्रतिष्ठितेषु वा सचित्तेषु वा सचित्तकोलप्रतिनिश्रितेषु वा न गच्छन्न तिष्ठेन्न निषीदेन्न त्वग्वर्त्तयेदन्यं न गमयेन्न स्थापयेन्न निषीदयेन्न स्वापयेदन्यं गच्छन्तं वा तिष्ठन्तं वा निषीदन्तं वा स्वपन्तं वा न समनुजानामि यावज्जीवं त्रिविधं त्रिविधेन मनसा वाचा कायेन न करोमि न कारयामि कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामि तस्य भदन्त! .. प्रतिक्रामामि निन्दामि गर्हाम्यात्मानं व्युत्सृजामि ।।५।। (सू.१४) । शब्दार्थ- (से) पूर्वोक्त पंचमहाव्रतों के धारक (संजयविरयपडिहयपच्चक्खायपावकम्मे) संयम युक्त, विविध तपस्याओं में लगे हुए और प्रत्याख्यान से पापकर्मों को नष्ट करनेवाले (भिक्खू वा) साधु अथवा (भिक्खूणी वा) साध्वी (दिआ वा) दिवस में, अथवा (राओ वा) रात्रि में, अथवा (एगओवा) अकेले, अथवा (परिसागओ वा) सभा में,अथवा (सुत्ते वा) सोते हुए, अथवा (जागरमाणे) जागते हुए (वा) दूसरी और भी कोई . अवस्था में (से) वनस्पतिकायिक जीवों की जयणा इस प्रकार करें कि (बीएसु वा) शाली आदि बीजों के ऊपर (बीयपइट्टेसु वा) बीजों पर रहे आसन ऊपर (रूढेसुवा) अंकुरों के ऊपर (रूढपइट्टेसु वा) अंकुरों पर रहे आसन आदि वस्तुओं के ऊपर (जाएसु वा) धान्य के खेतों में (जायपइडेसु वा) धान्य के खेतों में रहे. आसन आदि वस्तुओं के ऊपर (हरिएसु वा) हरे घास के ऊपर (हरियपइडेसु वा) हरे घास पर रहे आसन आदि वस्तुओं के ऊपर (छिन्नेसुवा) कटी हुई वृक्ष की डाली के ऊपर (छिन्नपइट्टेसु वा) कटी हुई वृक्ष-डाली पर रहे आसन आदि के ऊपर (सच्चित्तेसु वा) अंडा आदि के ऊपर (सच्चित्तकोलपडिनिस्सिएसु वा) घुण आदि जन्तुयुक्त आसन आदि वस्तुओं के ऊपर (न गच्छेज्जा) गमन करे नहीं (न चिट्टेज्जा) खड़ा रहे नहीं (न निसीएज्जा) बैठे नहीं (न तुअर्टेज्जा) सोएं नहीं (अन्न) दूसरों को (न गच्छावेज्जा) गमन कराएं नहीं (न चिट्ठावेज्जा) खड़ा कराएं नहीं (न निसीयावेज्जा) बैठाएं नहीं (न तुअट्टाविज्जा) सुलाएं नहीं (अन्न) दूसरों को (गच्छंतं वा) गमन करते हुए अथवा (चिट्ठतं वा) खड़ा रहते हुए अथवा (निसीयंतं वा) बैठते हुए अथवा (तुअस॒तं वा) सोते हुए और किसी भी तरह से भी वनस्पतिकाय की हिंसा करते हुए (न समणुजाणेज्जा) अच्छा समझे नहीं ऐसा भगवान् ने कहा; अतएव मैं (जावज्जीवाए) जीवन पर्यन्त (तिविहं) कृत, कारित, अनुमोदित रूप वनस्पतिकायिक त्रिविध-हिंसा को (मणेणं) मन (वायाए) वचन (काएणं) काया रूप (तिविहेण) तीन योग से (न करेमि) नहीं करूं, (न कारवेमि) नहीं कराऊ, (करंतं) श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 40
SR No.002252
Book TitleSarth Dashvaikalik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size15 MB
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