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________________ दिवा वा रात्रौ वा, एको वा परिषद्गतो वा सुप्तो वा जाग्रद्वा सोऽग्निं 'वाऽङ्गारं वा मुर्मुरं वाऽर्चिर्वा ज्वालां वाऽलातं वा शुद्धाग्निं वोल्कां वा `नोत्सिश्चेन्न घट्टयेद्, न भिन्द्यान्नोज्ज्वालयेन्न प्रज्वालयेन्न निर्वापयेदन्यं नोत्सेचयेन्न घट्टयेन्न भेदयेन्नोज्वालयेन्न प्रज्वालयेन्न निर्वापयेदन्यं उत्सिञ्चन्तं वा घट्टयन्तं वा भिन्दन्तं वोज्ज्वालयन्तं वा प्रज्वालयन्तं वा निर्वापयन्तं वा न समनुजानामि यावज्जीवं त्रिविधं त्रिविधेन मनसा वाचा कायेन न करोमि न कारयामि कुर्वन्तमप्यन्यं न . समनुजानामि तस्य भदन्त ! प्रतिक्रामामि निन्दामि गर्हाम्यात्मानं व्युत्सृजामि ।।३।। (सू.१२) शब्दार्थ - (से) पूर्वोक्त पंचमहाव्रतों के धारक (संजयविरयपडिहयपच्चक्खायपावकम्मे ) संयम युक्त, विविध तपस्याओं में लगे हुए और प्रत्याख्यान से पापकर्मों को नष्ट करनेवाले (भिक्खू वा) साधु अथवा (भिक्खुणी वा) साध्वी (दिआ वा) दिवस में, अथवा (राओ वा) रात्रि में, अथवा (एग़ओ वा) अकेले, अथवा (परिसागओ वा) सभा में, अथवा (सुत्ते वा) सोते हुए, अथवा (जागरमाणे) जागते हुए (वा) दूसरी और भी कोई अवस्था में (से) अग्निकायिक जीवों की जयणा इस प्रकार करे कि (अगणिं वा) तपे हुए लोहे में स्थित अग्निं (इंगालं वा) अंगारों की अग्नि ( मुम्मुरं वा ) भोभर की अग्नि (अच्विं वा) दीपक आदि की अग्नि ( जालं वा ) ज्वाला की अग्नि (अलायं वा ) जलते हुए काष्ठ की अग्नि (सुद्धागणिं वा ) काष्ठ रहित अग्नि (उक्कं वा ) उल्कापात बिजली आदि 'अग्निकाय को (न उंजिज्जा ) ईंधनादि से सींचे ' नहीं (न घट्टेज्जा) चलवचल' करे नहीं (न भिंदेज्जा ) छेदन-भेदन करे नहीं (न उज्जालेज्जा) एक बार पवन आदि से उजारे' नहीं (न पंज्जालेज्जा) बार-बार पवन आदि से उजारे नहीं ( न निव्वावेज्जा) बुझाए नहीं (अन्नं). दूसरों के पास (न उंजावेज्जा ) ईंधनादि से सिंचाये नहीं (न घट्टावेज्जा) 'चलविचल कराए नहीं (न भिंदावेज्जा) छेदन' भेदन कराये नहीं (न उज्जालावेज्जा) एक बार उजरवाऐं नहीं (न पज्जालावेज्जा) बारंबार पवन आदि से उजरवाऐं नहीं (न निव्वाविज्जा) बुझवाये नहीं (अन्नं) दूसरों को (उंजंतं वा ) ईंधनादिक से सींचते हुए अथवा (घट्टतं वा ) चलविचल करते हुए अथवा (भिंदंतं वा ) छेदन - भेदन करते हुए अथवा (उज्जालंतं वा) पवन आदि से बार बार उजारते हुए अथवा (पज्जालंतं वा ) पवन 'आदि से बार-बार उजारते हुए अथवा ( निव्वावंतं वा ) बुझाते हुए (न समणुजाणेज्जा) अच्छा समझे नहीं ऐसा भगवान ने कहा । अतएव (जावज्जीवाए ) जीवन पर्यन्त (तिविह) कृत, कारित, अनुमोदित रूप अग्निकायिक त्रिविध हिंसा को (मणेणं) मन (वायाए) वचन (काएणं) काया रूप (तिविहेण ) तीन योग से ( न करेमि ) नही करता हूँ, (न १ आग में लकड़ी वगेरह डाले नहीं । २ हिलाए नहीं । ३ वायु या फूंक देकर जलाए नहीं । ४ आग के बड़े खंडो तोड़कर छोटे-छोटे टुकड़े करे नहीं श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 37
SR No.002252
Book TitleSarth Dashvaikalik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size15 MB
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