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________________ कायेन न करोमि न कारयामि कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामि तस्य भदन्त! प्रतिक्रामामि निन्दामि गर्हामि आत्मानं व्युत्सृजामि। द्वितीये भदन्त! महाव्रते उपस्थितोऽस्मि सर्वतो मृषावादाद्विरमणम् २।। (सू.४) शब्दार्थ - (अह) इसके बाद (भंते!) हे मुनीन्द्र! (अवरे) आगे के (दोच्चे) दूसरे (महव्वए) महाव्रत में (मुसावायाओ) असत्य भाषा से (विरमणं) दूर रहना भगवान ने फरमाया है, अतएव (भंते) हे प्रभो! (सव्वं) समस्त (मुसावायं) असत्य भाषण का (पच्चक्खामि) प्रत्याख्यान करता हूं (से) वह (कोहा वा') क्रोध से (लोहा वा) लोभ से (भया वा) भय से (हासा वा) हास्य से (सयं) खुद (मुस) असत्य (वइज्जा) बोलें (नेव) नहीं (अन्नेहिं) दूसरों के पास (मुस) असत्य (वायाविज्जा) बोलावे (नेव) नहीं (मुसं) असत्य (वयंते) बोलते हुए (अन्ने वि) दूसरों को भी (न समणुजाणेज्जा) अच्छा समझे नहीं, ऐसा जिनेश्वरों ने कहा। इसलिए (जावज्जीवाए) जीवन पर्यन्त, मैं (तिविहं) कृत, कारित, अनुमोदित रूप त्रिविध असत्य-भाषण को (मणेणं) मन (वायाए) वचन (काएणं) काया रूप (तिविहेण) तीन योग से (न करेमि) नहीं करता हूं (न कारवेमि) नहीं कराऊ (करंत) करते हुए (अन्नं पि) दूसरे को भी (न समणुजाणामि) अच्छा समझू नहीं (भंते!) हे गुरु! (तस्स) भूतकाल में बोले गये असत्य की (पडिक्कमामि) प्रतिक्रमण रूप आलोयणा करता हूं (निंदामि) आत्म-साक्षी से निन्दा करता हूं (गरिहामि) गुरु-साक्षी से. गर्दा करता हूं (अप्पाणं) असत्य बोलनेवाली आत्मा का • (वोसिरामि) त्याग करता हूं (भंते) हे कृपानिधे! (दोच्चे) दूसरे (महव्वए) महाव्रत में (सव्वाओ) समस्त (मुसावायाओ) असत्य-भाषण से (वेरमणं) दूर रहने के लिए (उवटिओमि) उपस्थित हुआ हूं। तिसरे महाव्रत की प्रतिज्ञा . . . अहावरे तच्चे भंते! महव्वर अदिन्नादाणाओ वेरमणं. सव्वं भंते! अदिन्नादाणं पच्चक्खामि. से गामे वा नगरे वा रपणे वा अप्पं वा बहुं वा अणुं वा थूलं वा चित्तमंतं वा अचित्तमंतं वा नेव सयं अदिन्नं गिहिज्जा नेवन्नेहिं अदिन्नं गिण्हाविज्जा, अदिन्नं गिण्हते वि अन्ने न समणुजाणामि. जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि करंतं पि अन्नं न १ यहाँ पर 'वा' शब्द एक-एक के तज्जातीय भेदों को ग्रहण करने के वास्ते है।जैसे-सद्भावप्रतिषेध-आत्मा, पुन्य, • पाप,स्वर्ग, मोक्ष नहीं है ऐसा बोलना। असद्भावोद्भावन-आत्मा श्यामाकतंदुल प्रमाण या सर्वगत है ऐसी आगम विरूद्ध कल्पना करना अर्थान्तर-हाथी को अश्व और अश्व को हाथी कहना iii गर्हा-काणे को काणा, अन्धे को अन्धा कहना iv वे असत्य के चार भेद हैं। क्रोधादि चारों में इनकी योजना स्वयं कर लेना चाहिए। श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 27
SR No.002252
Book TitleSarth Dashvaikalik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size15 MB
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