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________________ नैरयिकाः सर्वे मनुजाः सर्वे देवाः सर्वे प्राणिनः परमाधार्मिकाः, एष खलु षष्ठो जीवनिकायस्त्रसकाय इति प्रोच्यते ।। (सू.१) शब्दार्थ - (जे य) और जो (कीडपयंगा) कीट, पतंग आदि (जाय) और जो (कुंथुपिपीलया) कुन्थु, कीड़ी आदि (सव्वे बेइंदिया) सभी द्वीन्द्रिय जीव (सव्वे तेइंदिया) सभी त्रीन्द्रिय जीव (सव्वे चउरिंदिया) सभी चतुरिन्द्रिय जीव (सव्वे पंचिंदिया) सभी पंचेन्द्रिय जीव (सव्वे तिरिक्खजोणिया) सभी तिर्यंचयोनिक जीव (सव्वे नेरइया) सभी नारक जीव (सव्वे मणुआ) सभी मनुष्य (सव्वे देवा) सभी देवता (सव्वे पाणा) ये सभी प्राणी (परमाहम्मिया) परम सुख की इच्छा रखनेवाले हैं। (एसो) यह (खलु) निश्चय से (छट्ठो) छट्ठा (जीवनिकाओ) जीवों का समुदाय (तसकाउत्ति) त्रसकाय इस नाम से (पत्रुच्चइ) कहा जाता है। __- द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय इन सभी जीवों का समुदाय 'त्रसकाय'' कहलाता है और ये सभी जीव सुखपूर्वक जीने की इच्छा रखते हैं, ऐसा जिनेश्वर भगवन्तों ने फरमाया है। छ जीव निकाय की रक्षा हेतु प्रतिज्ञा इच्चेसिं छण्हं जीवनिकायाणं नेव सयं दंडं, समारंभिज्जा .. नेवेन्नेहिं दंडं समारंभाविज्जा, दंडं समारंभंते वि अन्ने न समणुजाणामि, जावज्जीवाएं तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं न करेमि, न कारवेमि, करंतपि अन्नं न समणुजाणामि तस्स भंते! पंडिकमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि ।। (सू.२) सं.छा.ः इत्येषां षण्णां जीवनिकायानां नैव स्वयं दण्डं समारभेत, नैवान्यैः ।। दण्डं समारम्भयेत, दण्डं समारभमाणानपि अन्यान् न समनुजानीयाद्, यावज्जीवं त्रिविधं त्रिविधेन मनसा वाचा कायेन न करोमि, न कारयामि, कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामि तस्य भदन्त! . प्रतिक्रामामि निन्दामि गामि आत्मानं व्युत्सृजामि।। (सू.२). शब्दार्थ - (इच्चेसिं) ऊपर कहे हुए (छण्ह) छठवें (जीवनिकायाणं) त्रसकाय का (दंड) संघट्टन, आतापन आदि हिंसा रूप दंड का (सयं) खुद (नेव समारंभिज्जा) आरंभ नहीं करे (अन्नेहि) दूसरों के पास (दंडं) संघटन आदि (नेव समारंभाविज्जा) आरंभ नहीं करावे (दंड) संघट्टन आदि (समारंभंते) आरंभ करते हुए (अन्ने वि) दूसरों को भी (न समणुजाणेज्जा) अच्छा नहीं समझे। ऐसा जिनेश्वरों ने कहा, इसलिए मैं (जावज्जीवाए) जीवन पर्यन्त (तिविहं) कृत, कारित, अनुमोदित रूप आरंभ को (मणेणं) मन (वायाए) १ त्रस और स्थावर जीवों के विशेष भेद अस्मल्लिखित 'जीवभेद-निरूपण' नामक पुस्तक से देख लेना चाहिए। श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 24
SR No.002252
Book TitleSarth Dashvaikalik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size15 MB
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