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निष्कारण तेल आदि लगाना या शोभा के निमित्त शरीर पर अलंकार पहनना ५२ ।।९।।
सव्वमेयमणाइण्णं, निग्गंथाणं महेसिणं|
संजमम्मि य जुत्ताणं, लहुभूयविहारिणं ||१०|| सं.छा.: सर्वमेतदनाचीर्णं, निर्ग्रन्थानां महर्षीणाम्।
संयमे च युक्तानां, लघुभूतविहारिणाम् ।।१०।। शब्दार्थ - (निग्गंथाणं) द्रव्य-भाव रूप गांठ से रहित, (संजमम्मि) संयम-धर्म में (जुत्ताणं) उद्यमवान् (य) और (लहुभूयविहारिणं) वायु के समान अप्रतिबद्ध विहार करनेवाले (महेसिणं) साधुओं को (एयं) ऊपर कहे हुए (सव्वं) सभी अनाचार (अणाइण्णं) आचरण करने योग्य नहीं हैं।
___ - संयम को पालन करनेवाले अप्रतिबद्ध विहारी निर्ग्रन्थ महर्षियों को ऊपर बतलाये हुए बावन अनाचार त्याग करने योग्य हैं। ऋजु दर्शी कौन ?
पंचासवपरिण्णाया, तिगुत्ता छसु संजया।
पंचनिग्गहणा धीरा, निग्गंथा उज्जुदंसिणी ||११|| सं.छा.: पञ्चाश्रवपरिज्ञाताः, त्रिगुप्ताः षट्सु संथताः।
पञ्चनिग्रहणा धीरा, निर्ग्रन्था ऋजुदर्शिनः ।।११।।, शब्दार्थ - (पंचासवपरिण्णाया) पांच आश्रवजन्य दोषों को जाननेवाले (तिगुत्ता) तीन गुप्तियों से गुप्त (छसु) षड्जीवनिकाय के प्रति (संजया) संयमशील (पंचनिग्गहणा) पांचों इन्द्रियों का निग्रह करनेवाले (धीरा) भयों से नहीं डरनेवाले (निग्गंथा) निर्ग्रन्थ साधु (उज्जुदंसिणो) ऋजुदर्शी होते हैं।
, __-जीव हिंसा, झुठ बोलना, चोरी करना, मैथुन सेवना, परिग्रह रखना इन पांचों आश्रवों से उत्पन्न दोषों के जाननेवाले मनोगुप्ति' वचनगुप्ति' काययुप्ति' इन तीनों गुप्तियों को पालनेवाले, स्पर्शन', रसन', घ्राण', चक्षु', श्रोत्र इन पांचों इन्द्रियों को दमनेवाले, सात' भयों से नहीं डरनेवाले और निष्कपट भाव से सब जीवों को आत्मवत् देखनेवाले या केवल मोक्षमार्ग में ही रहनेवाले जो पुरुष होते हैं, वे निर्ग्रन्थ कहे जाते हैं। ऋतुकाल का वर्तन
आयावयंति गिम्हेसु, हेमंतेसु अवाउडा।
वासासु पडिसंलीणा, संजया सुसमाहिया ।।१२।। १ कषाय-विकारों में मन को न जाने देना, २ दोष रहित भाषा बोलना, ३ सपाप व्यापार शरीर से न करना, ४ शरीर, ५ जीभ, ६ नाक, ७ नेत्र, ८ कान, ९ इहलोक-मनुष्य को मनुष्य से होनेवाला i, परलोकभय-मनुष्य को तिर्यंच से होनेवाला ii, आदानभय-राजा से होनेवाला iii, अकस्मात् भय-बिजली आदि से होनेवाला iv, आजीविकाभय-दुकाल आदि से होनेवाला v, मरणभय vi, लोकापवाद भय vii
श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 16