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________________ पडिसोअमेव अप्पा, दायव्वो होउ-कामेणं ।।२।। सं.छा.: अनुस्रोतः प्रस्थिते बहुजने, प्रतिस्रोतलब्धलक्षण। प्रतिस्रोत एव आत्मा, दातव्यो भवितुकामेन ।।२।। भावार्थ : नदी के पूर प्रवाह में काष्ठ के समान विषय; कुमार्ग द्रव्य, क्रिया के अनुकूल प्रवृत्तिशील अनेक लोग संसार रूपी समुद्र की ओर गति कर रहे हैं। पर जो मुक्त होने की इच्छावाला है, जिसे प्रतिस्रोत की ओर गति करने का लक्ष्य प्राप्त हो गया है, जो विषय भोगों से विरक्त बन संयम की आराधना करना चाहता है उसे अपनी आत्मा को विषय, प्रवाह से विपरीत-मार्ग, संयम-मार्ग का लक्ष्य रखकर स्वात्मा को प्रवृत्त करना चाहिए।।२।। अणुसोअसुहो लोओ, पडिसोओ आसवो सुविहिआणं| अणुसोओ संसारो, पडिसोओ तस्स उत्तारो ||३|| . सं.छा.: अनुस्रोतःसुखो लोकः, प्रतिस्रोत आश्रवः (मः) सुविहितानाम्। : अनुस्रोतः संसारः, प्रतिस्रोतस्तस्मादुत्तारः ।।३।। भावार्थ : बहुलकर्मीजन साधारण की विषय भोगों की ओर प्रवृत्ति सुखकारी है अर्थात्. अनुकूल प्रवृत्ति सुखकारी है पर नदी के प्रवाह में सामने तैरना अत्यंत कठिन है वैसे विषयासक्त लोगों को इंद्रिय जयादि रूप या दीक्षा पालन रूप आश्रम प्रतिश्रोत समान कठिन है। विषय में प्रवृत्ति करने रूप अनुश्रोत में चलने से संसार की वृद्धि होती है उसका त्यागकर प्रतिश्रोत में प्रवृत्ति करने से संसार से पार पाया जाता है।।३।। तम्हा आयार-परकमेणं, संवर-समाहि-बहुलेणं| चरिआ गुणा अ नियमा अ, हुँति साहूण दट्ठव्वा ||४|| सं.छा.ः तस्मादाचारपराक्रमेण, संवरसमाधिबहुलेन। चर्या गुणाश्च नियमाश्च, भवन्ति साधूनां द्रष्टव्याः ।।४।। भावार्थ : इसी कारण से ज्ञानाचारादि रूप आचार में प्रयत्न करनेवाले और इंद्रियादि विषयों में संवर करने वाले सभी प्रकार से आकुलता रहित मुनि भगवंतों को एक स्थान पर निरंतर न रहने रूपी चर्या, मूल गुण, उत्तर गुण, रूप गुण और पिंडविशुद्धि आदि नियमों का पालन करने हेतु उन पर दृष्टिपात करना चाहिए। उन्हें समझना चाहिए।।४।। अनिएअ-वासो समुआण-चरिआ, अन्लाय-उँछं पइरिक्षया | अप्पोवही कलहविवज्जणा अ, विहार-चरिआ इसिणं पसत्था ||५|| सं.छा.ः अनियत (अनिकेत) वासः समुदानचर्या, अज्ञातोञ्छं प्रतिरिक्तता चं। अल्पोपधित्वं कलहविवर्जना च, विहारचर्या, ऋषीणां प्रशस्ता ।।५।। भावार्थ ः अनियतवास (एक स्थान पर मर्यादा उपरांत अधिक न रहना), अनेक स्थानों श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 176
SR No.002252
Book TitleSarth Dashvaikalik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size15 MB
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