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पवेयर अज्ज -पयं महामुनी, धम्मे ठिओ ठावयइ परंपि ।
निक्खम्म वज्जेज्ज कुसीललिंगं, न यावि हासं कुहर जे स भिक्खू ||२०|| सं.छा.ः प्रवेदयति, आर्यपदं महामुनिः, धर्मे स्थितः स्थापयति परमपि ।
निष्क्रम्य वर्जयति कुशीललिङ्गं, न चापि हास्यकुहको यः स भिक्षुः ॥ २० ॥ भावार्थ : जो महामुनि परोपकार हेतु शुद्ध धर्म का उपदेश देते हैं और गृहस्थाश्रम से निकलकर आरंभादि कुशीलता की चेष्टा एवं हास्यकारी चेष्टा नहीं करते, वे साधु कहे जाते हैं ||२०||
तं देहवासं असुइं असासयं, सया चए निच्च - हियद्वियप्पा | छिंदित्तु जाइ-मरणस्स बंधणं, उवेई भिक्खू अपुणागमं गई ||२१|| ॥ त्ति बेमि ॥
सं.छा.ः तं देहवासं, अशुचिं, अशाश्वतं सदा त्यजति नित्यहिते स्थितात्मा । छित्त्वा जाति-मरणस्य बन्धनं, उपैति भिक्षुः, अपुनरागमां गतिम् ॥ २१ ॥ ।। इति ब्रवीमि ॥
भावार्थ : मोक्ष के साधन भूत, सम्यग्दर्शनादि में स्थित साधु, अशुचि से भरे हुए अशाश्वत देहावास का त्यागकर, जन्म मरण के बन्धनों को छेदकर, पुनर्जन्म रहित गति को प्राप्त करता है ।। २१ ।।
श्री शय्यं भवसूरीश्वरजी म. कहते हैं कि मैं तीर्थंकर गणधरादि का कहा हुआ
कहता हूँ।
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श्री दशवैकालिके प्रथम चूलिका
उपयोगी शब्दार्थ - (पव्वइएणं) प्रव्रजित (ओहाणुप्पेहिणा) संयम का त्याग करने की इच्छावाला (रस्सि) लगाम ( पोय) पोत (संपडिलेहिअव्वाइं) विचार करने योग्य ||१|| (लहुसगा) असार (इत्तरिआ) क्षणिक (भूज्जो) बार-बार (सायबहुला) मायाबहुल (अवट्ठाइ ) रहनेवाला (ओमजणपुरक्कारे) नीच जन को भी मान सन्मान देना पड़े (पड़िआयणं) वमन पिना (अहरगइवासोवसंपया) नीच गति में जाने रूप कर्म बंधन (सोवक्केसे) क्लेशरहित (कुसग्ग) कुश के अग्रभाग पर (दुच्चिन्नाणं) दुष्टकर्म (वेइत्ता) भोगकर (झोसइत्ता) जलाकर (आयई) भविष्यकाल (अवबुज्झइ) जानता है ।।१।। (ओविओ) भ्रष्ट होकर (छमं) पृथ्वी पर ।।२।। (पूइमो) पूजने योग्य ||३|| (माणिमो) मानने योग्य (सिट्ठिव्व) श्रीमंत जैसा (कब्बडे ) गाँव में (छूढो ) गिरा हुआ ||५|| (समक्क्कंत) जाने के बाद (गलं) गल, लोह कांटे पर का मांस ||६|| (कुतत्तीहिं) दुष्ट चिंताओं से ।।७।। (परिकिन्नो) खूंचा हुआ (मोह संताण संतओ) कर्म प्रवाह व्याप्त
श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 167