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अध्यात्मरतः सुसमाहितात्मा, सूत्रार्थं च विजानाति यः स भिक्षुः ।।१५।। भावार्थ : जो साधु हाथों से, पैरों से, वचन से, एवं इंद्रियों से संयत है, अध्यात्मभाव में लीन रहता है, ध्यान कारक गुणों में आत्मा को सुस्थित करता है, और सूत्रार्थ को . यथार्थ जानता है। वह भिक्षु है।।१५।। उवहिम्मि अमुच्छिष्ट अगिद्धे, अल्लाय उंछं पुल-निप्पुल्लाए। कय-विक्रय-सन्निहिओ विरए, सव्व-संगावगए य जे स भिक्खू ||१६|| सं.छा.: उपधौ, अमूर्च्छितः, अगृद्धः, अज्ञातोञ्छं पुलाकनिष्पुलाकः।
क्रयविक्रयसन्निधिभ्यो विरतः,सर्वसङ्गापगतश्च यः स भिक्षुः ।।१६।। .. भावार्थ : जो साधु उपधि में अमूर्छित है, आसक्ति रहित है। अपरिचित घरों से शुद्ध आवश्यक अल्प वस्त्र लेता है, संयम को निःसार करनेवाले दोषों से रहित है। क्रयविक्रय और संग्रह से रहित है, द्रव्य भाव संग का त्यागी है, वह भिक्षु है ।।१६।। . अलोल-भिक्खू न रसेन्स गिद्धे, उंछं चरे जीवियं नाभिकंखे, . इड्ढिं च सकारण-पूयणं च, चार ठियप्पा अणिहे जे स भिक्खू ||१७|| : सं.छा. अलोलभिक्षुर्न रसेषु गृद्धः, उञ्छं चरति जीवितं नाभिकाङ्क्षते। ... ऋद्धिं च सत्कारणपूजनं च, त्यजति स्थितात्मा, अनिभो यः स भिक्षुः।।१७।। भावार्थ : जो साधु अलोलुप है, रसगृद्धि से रहित है, अपरिचित घरों से आहार लेनेवाला है, असंयमित जीवन की आकांक्षा से रहित है, लब्धिरूपी.ऋद्धि की पूजा, सत्कार की इच्छा से रहित है वह भिक्षु है ।।१७।। न परं वएज्जान्सि 'अयं कुन्सीले', जेणऽन्नो कुप्पेज्ज न तं वरज्जा। जाणिय पत्तेयं पुण्ण-पावं, अत्ताणं न समुक्कसे जे स भिक्खू ||१|| सं.छा.ः न परं वदति, अयं कुशीलः, येनाऽन्यः कुप्यति न तद् ब्रवीति।
ज्ञात्वा प्रत्येकं पुण्यपापं, आत्मानं न समुत्कर्षति यः स भिक्षुः ।।१८।। भावार्थ : प्रत्येक आत्मा के पुण्य-पाप, का उदय पृथक्/पृथक् है। ऐसा जानकर यह कुशील है, दुराचारी है, ऐसा न कहे, जिस वचन से दूसरा कुपित हो, ऐसा वचन भी न कहे, स्वयं में गुण हो तो भी उत्कर्ष, गर्व न करे, वह भिक्षु है ।।१८।। न जाइमत्ते न य रूवमत्ते, न लाभमत्ते न सुटण मत्ते। मयाणि सव्वाणि विवज्जइत्ता, धम्मज्झाण-रए जे स भिक्खू||१९|| सं.छा.ः न जातिमत्तो न च रूपमत्तो, न लाभमत्तो न श्रुतेन मत्तः।
मदान् सर्वान् विवर्ण्य, धर्मध्यानरतो यः स भिक्षुः ।।१९।। भावार्थ : जो साधु जाति का, रूप का, लाभ का, श्रुत का मद नहीं करता और भी सभी मदों का त्यागकर, धर्म ध्यान में तत्पर रहता है वह भिक्षु है ।।१९।।
श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 166