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चतुर्थीउद्देशकः चार प्रकार से विनय समाधि :
संयं मे आउसं! तेणं भगवया एवमक्खायं, इह खलु थेरेहिं भगवंतेहिं चत्तारि विणयसमाहिठ्ठाणा पण्णत्ता, कयरे खलु ते थेरेहिं भगवंतेहिं चत्तारि विणयसमाहि-ट्ठाणा पण्णता? ईमे खलु ते थेरेहिं भगवंतेहिं चत्तारि विणय-समाहि-ट्ठाणा पण्णत्ता, तं जहा
'विणयसमाही सुयसमाही, तवसमाही, "आयारसमाही ।। सं.छा. श्रुतं मयाऽऽयुष्मंस्तेन भगवतैवमाख्यातम्,
इह खलु स्थविरैर्भगवद्धिश्चत्वारि विनयसमाधिस्थानानि प्रज्ञप्तानि, कतराणि खलु तानि स्थविरैर्भगवद्धिः, चत्वारि विनयसमाधिस्थानानि प्रज्ञप्तानि? अमूनि खलु तानि स्थविरैर्भमवद्धिश्चत्वारि विनयसमाधिस्थानानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा
विनयसमाधिः, श्रुतसमाधिः, तपःसमाधिः, आचारसमाधिः ।। भावार्थ : श्री सुधर्मास्वामी जम्बू नामक शिष्य से कहते हैं हे आयुष्मन्! मैंने भगवंत के पास से सुना है कि 'भगवंत ने विनय समाधि के चार स्थान कहे हैं।'
(शिष्य का प्रश्न) हे भगवंत! स्थविर भगवंत ने विनय समाधि के कौन से चार स्थान कहे हैं? .. (गुरु का प्रत्युत्तर) ये इस प्रकार उन स्थविर भगवंत ने विनय समाधि के चार स्थान कहे हैं। (१) विनय समाधि, (२) श्रुत समाधि, (३) तप समाधि, (४) आचार समाधि।।१।। श्लोक
विणए सुट अ तवे, आयारे निच्च पंडिया। ... अभिरामयंति अप्पाणं, जे भवंति जिइंदिया ||१|| सं.छा. विनये श्रुते च तपसि, आचारे नित्यं पण्डिताः, . - अभिरमयन्ति आत्मानं, ये भवन्ति जितेन्द्रियाः ।।१।। भावार्थ : जो साधु स्वात्मा को विनय, श्रुत, तप एवं आचार में लीन रखते हैं और जो जितेन्द्रिय हैं वे मुनि नित्य साध्वाचार का पालन करने से पंडित हैं ।।१।।
चउविहा खलु विणयसमाही भवइ, तं जहाअणुसासिज्जन्तो सुस्सूसइ १, सम्म सम्पडिवज्जड़ २, वेयमाराहइ ३, न य भवड़ अत्तसम्पग्गहिए ४,
श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 157