SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 87
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हिन्दी प्रेमाख्यानकों का ऐतिहासिक विकास : ७३ स्मरण करते ही सिद्ध उसके पास आ खड़ा हुआ। लोरक और टंटा 'झगड़ने लगे। सिद्ध ने सभा में चलने को कहा । वहाँ पहुँचने पर साक्षी के अभाव में बात नहीं सुलझी। चाँद पर टूटे ने मन्त्र चला दिया जिससे उसे कुछ याद ही नहीं रहा। ___ इन सब संकटों को पार करके लोरक और चाँद हरदी पहुँच गये। जिस समय इन्होंने हरदी की सीमा में प्रवेश किया, वहाँ का राजा झेतम शिकार के लिए बाहर जा रहा था। राजा ने उनका परिचय प्राप्त कर आने का कारण पूछा। तदनंतर उनको ससम्मान नाना सामग्री भेंट की । दोनों वहाँ सानन्द रहने लगे। उधर मैना लोरक-विरह में परेशान थी। एक बार नगर में एक टाड आया हुआ था। उसने नायक सिरजन को खोलिन के घर बुलाकर उससे उसकी यात्रा के विषय में पूछा और हरदीपाटन जाने का अनुरोध किया। उससे बहुत अनुनय की कि वह लोरक को वहाँ से भेज दे। सिरजन मैना का संदेश लेकर चार माह में हरदीपाटन आ पहुंचा। सिरजन लोरक के घर पहुंचा। लोरक को द्वारपाल ने सूचना दी कि कोई ब्राह्मण आया है। वह तुरन्त आया और आकर ब्राह्मण को प्रणाम किया। ब्राह्मण ने आशीर्वाद देकर अपनी पोथी खोलकर बताया कि तुम्हारा राजपाट गोवर में है, तुमने मैना पत्नी को छोड़ चाँद को अपना लिया है। मैना का नाम सुनते हो लोरक घबराने लगा। उसने सिरजन से सारा हाल सुना और उसे बहुत-सा दान देकर दूसरे दिन वापिस चलने · को कहा। वहाँ के राजा ने लोरक को बुलाकर सब समाचार जाना और गोवर जाने की सब तैयारी करा दी। सैनिक भी साथ कर दिये। चाँद को लेकर वह गोवर की ओर चला। ''. वे लोग जब गोवर से ३० मील दूर थे तब किसी ने वहाँ जाकर सूचना दे दी कि कोई राव सेना लेकर गोवर पर आक्रमण करने आ रहा है। गोवर में खलबली मच गई। परन्तु मैना को अपने स्वप्न पर विश्वास था कि लोरक सुबह तक आ जायगा। सुबह लोरक ने माली को बुलाकर गोवर जाने को कहा और उससे मना किया कि यह मत बताना कि किसने भेजा है। माली मैना को फूल देने लगा तो मैना रोने लगी। उसने कहा-पति के घर पर न रहते क्या फूल ? उसे फलों में लोरक की ही वास लगी। माली से मैना ने पूछा तो माली ने कहा-मैं तो परदेशी
SR No.002250
Book TitleApbhramsa Kathakavya evam Hindi Premakhyanak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremchand Jain
PublisherSohanlal Jain Dharm Pracharak Samiti
Publication Year1973
Total Pages382
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy