SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 63
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हिन्दी प्रेमाख्यानकों का ऐतिहासिक विकास : ४९ रुक्मिणी को बहुत भय था कि कृष्ण आयेंगे या नहीं । परन्तु बाईं ओर से छींक का होना और इसी प्रकार के अन्य शुभ शकुन हुए तो उसे कुछ सान्त्वना हुई। ___जब कृष्ण ने अपना रथ दौड़ाया तो चारों ओर से आवाज आई कि दौड़ो रे दौड़ो, माधव रुक्मिणी का हरण कर भाग रहा है। इस आवाज को सुनकर रुक्म के सैनिकों ने पीछा किया। वे सैनिक कह रहे थेरे ग्वाले ! यह माखन की चोरी नहीं है । यह गूजरी नहीं है। इस प्रकार युद्ध हुआ। बलराम भी अपनी छोटी-सी सेना के साथ युद्ध में पहुँच ही चके थे। उन्होंने शिशपाल के छक्के छडा दिये। रुक्मिणी का भाई रुक्म बड़े दावे के साथ यह कहता हुआ आगे बढ़ा कि अबला को पकड़कर ले जा रहे हो; मेरा सामना करने पर पता चलेगा। कृष्ण को क्रोध आ गया परन्तु रुक्मिणो के मन का भाव समझकर उसे जान से नहीं मारा । निःशस्त्र करके उसके बाल मुड़ा दिए। रुक्मिणी का मन इससे खिन्न हुआ अतः उसने उसके सर पर हाथ रख दिया तो फिर तुरन्त उसके सिर पर वैसे ही बाल आ गए। उधर श्रीकृष्ण को जब द्वारिका पहुँचने में देर हई तो पूरजन चिन्तित हुए । इतने में हाथ में हरी डालियाँ लिए कुछ पथिकों को आता देख लोग समझ गये कि कृष्ण आ रहे हैं । अतः नगरी के एक ओर से नारियाँ और दूसरी ओर से पुरुष पंक्तिबद्ध हो श्रीकृष्ण के स्वागत में आ रहे थे। ऐसा लगता था द्वारिकापुरी दोनों भुजाएं फैलाये कृष्ण का आलिंगन करने को तैयार हो । जिस प्रकार समुद्र में नदी प्रवेश करती है उसी प्रकार बलराम और कृष्ण ने द्वारिका में प्रवेश किया। __ वसुदेव-देवकी ने ज्योतिषी को बुलाकर विवाह की अन्य रस्में पूरी की। इसके पश्चात् वर-वधु केलिगह में चले गये । केलिगह का वर्णन कवि ने अपनी लेखनी से नहीं किया। वह बड़ी सझ के साथ कहता है कि आगे की कथा देवों और ऋषियों ने भी नहीं जान पाई तो मैं उसका वर्णन कैसे कर पाता : एकन्त उचित क्रीड़ा चौ आरम्भ दीठी सु न किहि देव दुजि । अदिठ अश्रुत किम कहणो आवै, सुखते जाणणहार सुजि ॥ १७३ ॥
SR No.002250
Book TitleApbhramsa Kathakavya evam Hindi Premakhyanak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremchand Jain
PublisherSohanlal Jain Dharm Pracharak Samiti
Publication Year1973
Total Pages382
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy