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________________ - हिन्दी प्रेमाख्यानकों का ऐतिहासिक विकास : ४५ गई । नृपति ने इसे उसका प्रणय-निवेदन समझा और फिर केलि-क्रीड़ा की। मालतो वे मधु से कहा कि आपने भी नृपति कुँवर जैसा हठ ठान रखा है। पुरुष को तो स्त्री के संकेत मात्र पर आगे बढ़ना चाहिये। किसी प्रकार भी मालती का आग्रह मधु ने स्वीकार नहीं किया। वह बार-बार सम्बन्ध की विषमता को ही असमर्थता बताता। अन्त में मालती के न मानने पर उसने नन्द के यहाँ पढ़ना हो छोड़ दिया। __मधु अकेला हो गुलेल लेकर मानसरोवर पर जाता। परन्तु वहाँ भी नगर की स्त्रियाँ पानी भरने के मिस आने लगी। मालती को भी यह समाचार मिला । वह भी आने लगो। उसने यह सोचकर कि अकेले के कहने से मधु नहीं मानेगा उसने अपनी सखी जैतमाल को स्थिति से अवगत कराया । जैतमाल वहाँ पहुँची और मधुकर को लक्ष्य करके मधु को उसी की निष्ठुरता पर व्यंग्य सुनाने लगी । इसी प्रकार उसने आगे चलकर मधु और मालतो के पूर्वजन्म के सम्बन्धों का स्मरण कराया। उसने कहा आप दोनों मधुकर और मालती थे तथा मैं सेवती थी। प्रथम हिमपात के कारण और फिर वन में आग लगने से वह झुलस गई थो। मधुकर उसे छोड़कर चला गया था। सेवती द्वारा सेवा किये जाने पर वह ठोक हई परन्तु मधुकर के विरह में उसने अपने प्राण तज दिये। इसके बाद जैतमाल ने समझाया कि वही मधुकर आप मधु और वही मालती मालती के रूप में अवतरित हुई है। अतः पूर्वभव का प्रेम निभाना चाहिये.। मधु को पूर्व भव का तो स्मरण हो आया परन्तु उसने सम्बन्धवैषम्य की अपनो टेक को नहीं छोड़ा। इसी बीच जैतमाल ने सोलह शृंगार से सजी मालती को मधु के सामने किया। मालती ने मोहन और वशीकरण मन्त्र का प्रयोग किया। मधु अब उसके वश में हो गया । जैतमाल ने दोनों का गठबन्धन कर दिया। वे दोनों मानसरोवर के पास की वाटिका में जैतमाल के साथ ही रहने लगे । मालती ने इस बात को राजा तक पहुँचा दिया। राजा ने मालती की माँ कनकमाल से सारा वृत्तान्त कहा और उनको मरवाने के अपने निश्चय से उन्हें अवगत कराया। रानी ने यह सूचना गुप्तरूप से मालती के पास भेज दी। मालती ने मधु को कहीं चले चलने को कहा। मधु अपनी हठ पर अड़ा रहा कि वह अकेले अपनी गुलेल से सबको भगा देगा। मालती ने मधु के वहाँ से टस से मस न होने के निश्चय को
SR No.002250
Book TitleApbhramsa Kathakavya evam Hindi Premakhyanak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremchand Jain
PublisherSohanlal Jain Dharm Pracharak Samiti
Publication Year1973
Total Pages382
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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