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हिन्दी प्रेमाख्यानकों का ऐतिहासिक विकास : २७ अद्वैतं सुखदुःखयोरनुगतं सर्वास्ववस्थासु यत्, • विश्रामो हृदयस्थ यत्र जरसा यस्मिन्नहार्यो रसः। कालेनावरणात्ययात्परिणते यत्स्नेहसारे स्थितं, ..
भद्रं तस्य सुमानुषस्य कथमप्येकं हि तत्प्राप्यते ॥ भवभूति ने प्रेम को सभी अवस्थाओं में अद्वैत माना है। इस रहस्य का निर्गुणिया संत कबीर ने उद्घाटन किया है :
कबीर बादल प्रेम का हम पर वरस्या आय । अंतर भीग्यो आत्मा, हरी भई बनराइ ॥ ३४ ॥२
. (गुरु० को अंग ) जिसकी आत्मा ही प्रेम में डूब चुको हो, निःसंदेह उसका प्रेम अद्वैत होगा । जो व्यक्ति प्रेम-शून्य है उसे कबीर धिक्कारते हैं :
जिहि घटि प्रीति न प्रेमरस, फुनि रसना नहिं राम। ते नर इस संसार में, उपजि भये बेकाम ॥१७॥
(सुमि० को अंग ) प्रेम-जगत का विस्तार इतना अधिक है कि उसे लिपिबद्ध कर पाना कठिन है। उल्लेखनीय और आश्चर्य की बात तो यह है कि निर्गुण संतों ने भी 'प्रेम' बिना अपना निस्तार संभन्न नहीं समझा। अस्तु, मुख्यरूप से उक्त प्रेम को लौकिक एवं पारलौकिक इन दो भेदों में विभाजित किया गया है। प्रेमाख्यानकों की परिभाषा के संदर्भ में डॉ० सत्येन्द्र का यह कथन है 'उगी के ( निर्गुणधारा के ) साथ प्रबन्धकथाओं को लेकर एक काव्यधारा और खड़ी हुई। इन कथाओं में प्रेमकथाओं की प्रधानता रही। ये'प्रेमगाथाएँ कहलाती हैं। फलतः मेरे विचार से, जिस कहानी, कथा, गाथा, लोकवाती अथवा आख्यानादि में सफल या असफल प्रेम को सोद्देश्य-पूरी बात कही जाये, उसे प्रेमाख्यान को संज्ञा दी जानो चाहिए। आगे 'आख्यानक' शब्द के अर्थ पर विवरण प्रस्तुत किया गया है।
१. भवभूति, उत्तररामचरित, १. ३९. २. सं० - डा० श्यामसुन्दरदास, कबीर ग्रन्थावली, पृ० ३. ३. वही, पृ० ५. ४. डा० सत्येन्द्र, मध्ययुगीन हिन्दी साहित्य का लोकतात्विक अध्ययन, प० १३९,