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.२६ : अपभ्रंश कथाकाव्य एवं हिन्दी प्रेमाख्यानक है अर्थात् उसे प्रेम-रस का पान नहीं होता। प्रेम-रस का पान तो उसे हो होता है जो अपना हृदय प्रेम की व्यथा से उसी प्रकार छेद लेता है जिस प्रकार कि केतकी के काँटे से भौंरा अपना तन छेद डालता है : भंवर भयेउ जस केतकि कांटा, सो रस पाइ होइ गुर चांटा।
. -वही, पृ० ९७. वास्तव में तो इस प्रेम को वहो पा सकता है. जिसकी पैठ अतिशय गहरी हो सके । कविवर देव की स्वीकारोक्ति है
प्रेम सों कहत कोउ-ठाकुर न ऐंठो सुनि। ...
बैठो गाड़ि गहरे, तो पैठो प्रेम घर में॥ ... इस प्रेम-घर तक पहुंचने का मार्ग अत्यन्त सुगम भी है और दुर्गम भी। . सुगम तब है जब मन छल-कपट से रहित हो । घनानंद के शब्दों में:
अति सधो सनेह को मारंग है जहाँ नेक सयानप बांक नहीं।
तहं साँचे चलें तजि आपनपो, झिझके कर्पटी जे निसांक नहीं॥ और दुर्गम तब है जब मन अस्थिर हो, कपटयुक्त हो। तब यह मार्ग मृणालतन्तु पर आधारित होता है। किसी क्षण भी प्रेम-सड़क रसातल में जा सकती है। अतएव यह कहा जा सकता है कि प्रेम का पथ अति विकराल है। बोधा ने कहा है :
अति छोन मृणाल के तारह ते तेहि ऊपर पांव दे आवनो है। सई वेह ते द्वारस कीन तहाँ परतीति को टांडो लदावनो है। कवि बोधा अनी घनी तेजहु तें चढ़ि तापै न चित्त डरावनो है। यह प्रेम को पंथ कराल महा तलवार को धार पे धावनो है ॥
जो भी हो, चाहे प्रेम के अनेक रूप हों, अथवा उसके पंथ अनेक हों; फिर भी सच्चा प्रेम सभो अवस्थाओं में एक-सा रहता है । भवभूति ने लिखा है, सच्चा प्रेम सुख दुःख में अद्वैत रहता है। वृद्धावस्था आने पर भी प्रेमरस में कोई न्यूनता नहीं आती। समय व्यतीत होने पर बाह्यावरणों के हट जाने से जो स्नेह का सार स्थित रहता है, वही सच्चा प्रेम है।
१. आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र, घनानंद ( सुजानहित ), पद्य २६७, पृ० ८६.