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अध्याय ७
उपसंहार अपभ्रंश और हिन्दी के प्रेमाख्यानकों के इस अध्ययन से जो निष्कर्ष निकले और जो उपलब्धियाँ हुईं उन्हें संक्षेप में क्रमिक रूप से इस प्रकार रखा जा सकता है : हिन्दी प्रेमाख्यानक अपनी सम्पूर्ण आत्मा और कलेवरगत विशिष्टताओं के कारण हमारे साहित्य की एक बहुत बड़ी उपलब्धि है। . इस काव्यरूप के भीतर प्राचीन और नवीन अनेक प्रकार के तत्त्वों का मिश्रण हुआ है। यह मिश्रण इस काव्यरूप को पुराने काव्यरूपों के जोड़-तोड़ से बना एक अलग काव्यरूप ही नहीं बनाता बल्कि इस मिश्रण की रासायनिक प्रक्रिया ने हिन्दी प्रेमाख्यानक के रूप में एक ऐसी विधा ( फार्म ) को जन्म दिया जो किंचित् पुराने उपादानों को स्वीकार करते हुए भी नई लोकात्मक भाव-भूमियों का स्पर्श करने वाली बिल्कुल विलक्षण शिल्पभंगिमा वाली वस्तु बन गई।
यह काव्यरूप हिन्दी में पूर्ण विकास को प्राप्त हुआ, किन्तु इसका बीजबिन्दु-वपन और अंकुरोद्भव अपभ्रंश साहित्य में हो चुका था। ऐसा स्वाभाविक भी है। क्योंकि अपभ्रंश न केवल हिन्दी की जननी भाषा है बल्कि लोकभाषा के रूप में हिन्दी का आगे चलकर जो विकास हआ, उसकी पूर्ववर्ती पीठिका भी यहीं तैयार हई। अनेकानेक विद्वानों ने अपभ्रंश को जो लोकभाषा कहा है, उसके पीछे यही मन्तव्य छिपा हुआ है । अपभ्रंश प्राकृत, पालि और संस्कृत की तुलना में कहीं अधिक लोकजीवनसम्पृक्त भाषा रही। परिणामतः न केवल उसके भाषिक कलेवर में बल्कि वस्तुगत आत्मा और शैलीशिल्प आदि के भीतर भी लोकतत्त्वों का प्रचुर समन्वय हुआ। हेमचन्द्राचार्य जब अपभ्रंश के वैयाकरणिक नियमों का आख्यान करते