________________
३२४ : अपभ्रंश कथाकाव्य एवं हिन्दी प्रेमाख्यानक पण की दृष्टि से ग्राह्य था। रासो के ऋतुवर्णन की विशेषताओं पर पं० हजारीप्रसाद द्विवेदी ने विशद प्रकाश डाला है। कुछ ऋतूवर्णन सम्बन्धी पद विभिन्न काव्य-संग्रहों में भी मिलते हैं। वसन्त ऋत का एक आकर्षक चित्र प्रस्तुत करने वाला उदाहरण देखिए :
फुल्लिअ केसु चन्द तह पअलिअ मंजरि तेज्जइ चूआ। .. दक्खिण वाउ सीअ भइ पवहइ कम्प विओइणि हीआ॥ . केअइ धूलि सव्व दिस पसरइ पीअर सव्वउ भासे।.. आउ वसन्त काइ सहि करिअइ कन्त ण थक्कइ पासे ॥ ..
-प्राकृतपैंगलम, २१३. वसंत ऋतु की आम्र-मंजरियां, चाँदनी, दक्षिणी शीतल पवन आदि विरहिणी के हृदय को पीड़ा देती हैं। वसन्तागमन से केशर का धूलि चारों
ओर फैल गई है जिससे सभी ओर पीला-पोला ही दिखाई पड़ता है । नायिका अपनी सखो से पूछती है कि प्रिय पास नहीं हैं और वसन्त आ गया, मैं क्या करूं ? मधुमास की इस पीड़ा को मंझन ने मधुमालती में व्यक्त किया है :
चैत करह निसरे बन बारी। बनसपती पहिरो नव सारी। चहुं दिसि भा मधुकर गुंजारा । पांखुरि फूल डारिन्ह अनुसारा। कुसुम सीस डारिन्ह से काढ़े। तरिवर नौ साखा भे बाढ़े। फागुन हुते जे तरु पतझारे । ते सभ भए चैत हरियारे । मोहि पतझार जो भा बिनु साई। सो न सखी मौला अब ताई।
दुखु दै प्रीतम छाडि गा जननि दीन्ह बनवास। औ रबि आठौं मै तपा कै मोहि सिर परगास ॥४१०॥
-मधुमालती, पृ० ३५८. वसन्तागम के समय विरही लोग पुष्पों को गन्ध, मन्द पवन के झोंकों, भौरों की गुंजार और कोयल-रव से कष्टानुभव करते हैं तथा पूर्वसंयोगावस्था का स्मरण करते हैं :
जं फुल्लु कमलवण बहइ लहु पवण भमइ भमरकुल दिसि विदिसं
१. डा० हजारीप्रसाद द्विवेदी, हिन्दी साहित्य का आदिकाल, पृ० ८२-८३.