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________________ ३२२ : अपभ्रंश कथाकाव्य एवं हिन्दी प्रेमाख्यानक तुलसीदास कहते हैं : कवित विवेक एक नहि मोरे । सत्य कहौं लिखि कागद कोरे ॥ कवि न होउं नहि चतुर प्रवीनू । सकल कला सब विद्या हीनू ॥ इसी प्रकार के अनेक उद्धरण मिलते हैं जिनका तुलनात्मक अध्ययन की दृष्टि से विशेष महत्त्व है । ऋतु-वर्णन ऋतु वर्णन के प्रसंग में अपभ्रंश से लेकर हिन्दी प्रेमाख्यानकों तक ऐसा कोई प्रेमकाव्य नहीं मिलेगा जिसमें ऋतुओं का वर्णन षऋतु अथवा बारहमासा या चौमासा के रूप में न मिलता हो । प्रेमकाव्य में विरहिणी अथवा विरही की स्थिति का सही चित्रण करने लिए ऋतुवर्णन आवश्यक भी होता है। संस्कृत में तो ऋतुसंहारादि काव्य ही दिए गये । ऋतुवर्णन और बारहमासे का वर्णन कवियों ने संयोग-वियोग के निश्चित पक्षों के आधार पर किया है। मूलतः षऋतुवर्णन की परिपाटी संयोगशृंगार के लिए और बारहमासे की विप्रलंभ के लिए चली आई है । षऋतु और बारहमासे के सम्बन्ध में डा० शिवप्रसाद सिंह ने निम्नलिखित विशेषताओं का उल्लेख किया है' : १. दोनों हो उद्दीपन के निमित्त व्यवहृत काव्य - प्रकार हैं किन्तु सामान्यतः षड्ऋतु का वर्णन संयोगशृंगार में, बारहमासे का विरह में होता है । इन नियमों का पालन बड़े शिथिल ढंग से होता है, अतः अपवाद भी मिलते हैं । २. ऋतुवर्णन ग्रीष्मऋतु से आरम्भ होता है, बारहमासे की पद्धति के प्रभाव के कारण कई स्थानों पर वर्षा से भी आरम्भ किया गया है। बारहमासा प्रायः आसाढ़ महीने से आरम्भ होता है । १. डा० शिवप्रसाद सिंह, सूरपूर्व ब्रजभाषा और उसका साहित्य, पृ० ३३७.
SR No.002250
Book TitleApbhramsa Kathakavya evam Hindi Premakhyanak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremchand Jain
PublisherSohanlal Jain Dharm Pracharak Samiti
Publication Year1973
Total Pages382
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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