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हिन्दी प्रेमाख्यानकों, अपभ्रंश कथाकाव्यों के शिल्प का तुलनात्मक अध्ययन : ३२१
ये काव्य सरस विद्या निपुन वाकवानि कंठह धरन । कविराज सकल गुन गन तिलक सुकवि पौहकर वंदत चरन ॥
-रसरतन, पृ० ५. सज्जन-दुर्जन-उल्लेख
अन्य कई कवियों ने भी इस प्रकार की परम्परा का निर्वाह किया है। इसके अतिरिक्त रचयिता सज्जन-दुर्जनों का भी स्मरण करते थे। भविष्यदत्तकथा में इस प्रकार का स्मरण किया गया है :
इह सज्जणलोयहो विणउ सिठ्ठ। जो सुहि मज्झत्थं विसिछु इछु ॥ जो पुणु खलु खुड्डु अइठ्ठ संगु। सो कि. अब्भत्थिउ देइ अंगु॥ परिच्छिद्दसएहि वावारु जासु। गुणवन्तु कहिमि कि कोवि तासु ॥
उ सक्कइ देखिवि परहो रिद्धि ।
णउ संहइ सरिसहं गुणपसिद्धि ॥ १.३. · रामचरितमानस में तुलसीदास ने भी खल-वन्दना की है : • बहुरि बन्दि खलगन सतिभाए। जे बिनु काज दाहिनेहु बाएं। . परहित हानि लाभ जिन्ह केरे । उजरे हरष विषाद बसेरे ॥ · इन कवियों में अनभिज्ञता-प्रकाशन की भी प्रणाली थी अथवा यों
कहें कि इनकी प्रकृति अत्यधिक सरल थी। तुलसी और स्वयंभू दोनों · ने अपने को अविवेकी तक कह डाला है :
बुहयण सयम्भु पई विण्णवइ। भई सरिसउ अण्णु णहिं कुकइ ॥ वायरणु कयावि ण जाणियउ। णउ वित्ति-सुत्तु वक्खाणियउ॥ णउ बुज्झिउ पिङ्गल-पत्थारु। णउ भम्मह-दंडि-अलङ्कारु॥पउमचरिउ, १.३.