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१८ : अपभ्रंश कथाकाव्य एवं हिन्दी प्रेमाख्यानक विषय में विद्वानों के संकेत मात्र मिलते हैं। जैसे, आचार्य रामचन्द्र शक्ल के शब्दों में 'ध्यान देने की बात है कि चरित्रकाव्य या आख्यानकाव्य के लिए अधिकतर चौपाई, दोहे की पद्धति ग्रहण की गई है। चौपाई-दोहे को यह परम्परा हम आगे चलकर सूफियों को प्रेम कहानियों में, तुलसी के रामचरितमानस में तथा छत्रप्रकाश, ब्रजविलास, सबलसिंह चौहान के महाभारत इत्यादि अनेक आख्यानक काव्यों में पाते हैं।'' डा० भगोरथ मिश्र लिखते हैं-'जायसी, तथा प्रेमाख्यानक कवियों की कहानी और प्रेमवर्णन का मूल जैनाचार्यों द्वारा लिखी प्राकृत और अपभ्रंश कथाओं.... में मिलता है । "जायसो, तुलसो आदि को दोहा-चौपाई वाली शैली जो हिन्दी में इतनो सफल सिद्ध हुई, अपभ्रंश से ही प्रारम्भ हुई है।'२. डा० हरिकान्त श्रीवास्तव को मान्यता है कि '......"हिन्दी आख्यानक काव्य अपभ्रंश के चरित्र और पुराण काव्यों के उत्तराधिकार में मिले। प्रो० हरिवंश कोछड़ का कथन है-'अपभ्रंश काव्यों के प्रेमाख्यानक काव्य हिन्दी साहित्य में जायसी के पद्मावत के रूप में प्रकट हुए। इसी प्रकार अन्य कतिपय विद्वानों ने इस सन्दर्भ की सूचना मात्र दो है।
हिन्दी प्रेमाख्यानकों पर जो शोध अथवा समालोचनात्मक ढंग के ग्रंथ लिखे गये हैं, उनमें डा० हरिकान्त श्रीवास्तव के 'भारतीय प्रेमाख्यान काव्य'; डा. कमल कुलश्रेष्ठ के 'हिन्दी प्रेमाख्यानक काव्य'; श्री गणेशप्रसाद द्विवेदी द्वारा संपादित 'हिन्दी प्रेमगाथा काव्य संग्रह'; पं० परशुराम चतुर्वेदो के 'मध्यकालीन प्रेमसाधना' और 'हिन्दी के सूफी प्रेमाख्यान'; डा० शिवसहाय पाठक के 'मलिक मोहम्मद जायसी और उनका काव्य'; श्री चन्द्रबली पांडेय के 'तसव्वुफ अथवा सूफोमत'; डा० श्याममनोहर पांडेय के ‘मध्ययुगीन प्रेमाख्यान' और डा० सरला शुक्ल के 'हिन्दी-सूफी कवि और काव्य' आदि का उल्लेख किया जा सकता है। यहाँ यह भी कहना अनिवार्य है कि हिन्दी साहित्य के इतिहास में भी हिन्दी-प्रेमाख्यानकों के सन्दर्भ में थोड़ी-घनी सामग्री दी हो गई थी। उल्लिखित सभी सामग्री अपने क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण स्थान तो रखती है, परन्तु इन सभी में शिल्प पर
१. आ० रामचन्द्र शुक्ल, हिन्दी साहित्य का इतिहास, प्रथम सं०, पृ०८.९. २. डा० भगीरथ मिश्र, हिन्दी काव्यशास्त्र का इतिहास, पृ० ४८. ३. डा. हरिकान्त श्रीवास्तव, भारतीय प्रेमाख्यान काव्य, पृ० २६. ४. प्रो० हरिवंश कोछड़, अपभ्रंश-साहित्य, पृ० ३८८.