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२९० : अपभ्रंश कथाकाव्य एवं हिन्दी प्रेमाख्यानक इस ऋद्धि-वृद्धि और धन-धान्य से पूर्ण तथा गगनचुम्बी द्वार-प्राकार और गोपूरों पर पवन से लहलहातो ध्वजाओं वाले महेन्द्रनगर को देखकर हनुमान जी सोचने लगते हैं कि क्या यह इन्द्र का देवलोक है ? ठीक इसी प्रकार जायसी ने भी सिंहलनगर का वर्णन करते हुए उसके ऊंचे भवनों एवं निवासियों के सुख-समृद्धिपूर्ण होने के साथ ही उसे 'इन्द्रासनपुरी' अर्थात् अमरावती के समान सुन्दर कहा है :
सिंघल नगर देखु पुनि बसा। धनि राजा असि जाकरि दसा॥ . . ऊँची पंवरी ऊंच अवासा । जनु कबिलास इन्द्र कर बासा ॥ . . राऊ रांक सब घर घर सुखी । जो देखिअ सो हंसता मुखी॥.. रचि रचि राखे चंदन चौरा । पोते अगर मेद औ केवरा॥. सब चौपारिन्ह चंदन खंभा। ओठंनि सभापति बैठे सभा॥ जनहु सभा देवतन्ह के जुरी । परी द्रिस्टि इन्द्रासन पुरी॥
-पदमावत, पृ० ३६.
सरोवर-वर्णन
अपभ्रंश काव्यों में वस्तुवर्णन के अन्तर्गत सरोवरों का सजीव चित्रण किया गया है। करकंडुचरिउ में सरोवर का चित्रण करते हुए चरितकार कहता है कि तालाब के समीप चिड़ियों की चहचहाहट से लगता है मानो वह अपने समीप बुला रहा हो, जलकुंजर अपनी सूंड में पानी भरभरकर घड़े की तरह उड़ेल रहे हैं जैसे प्यासे प्राणियों को पानी दे रहे हों, ऊपर निकले हुए कमलदंडों से वह गर्व करता हुआ प्रतीत होता है, उछलती हुई मछलियाँ जैसे उसको उद्घोषणा हो, शुभ्र फेन के बुलबुलों से वह हंसता हुआ सा प्रतीत होता है, विविध पक्षियों से नाचता हुआ, भ्रमरावलि के गुंजन से गाता हुआ और पवन से आंदोलित होने के कारण दौड़ता हुआ सा प्रतीत होता है : ‘जलकुंभिकुंभकुंभई धरंतु तण्हाउरजीवहं सुहु करंतु। . उइंडणलिणिउण्णइ वहंतु उच्छल्लियमोहिं मणु कहतु। डिंडीरपिंडरयहिं हसंतुअइणिम्मलपउरगुणेहि जंतु। पच्छण्णउवियसियपंकरहिं गच्चंतउ विविहविहंगहि । .