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.. अपभ्रंश कथा : परिभाषा, व्याप्ति और वर्गीकरण : २१५ अन्यत्र भी ऐसे अनेकानेक उद्धरणों से अपभ्रंश काव्य भरे पड़े हैं । अपभ्रंश भाषा के उत्कृष्ट कवि स्वयंभू और पुष्पदंत आदि कवियों की साहित्य-समाज को बहुत बड़ी देन है। इसीलिए राहुल जी ने स्वयंभू का मूल्यांकन इन शब्दों में किया : हिन्दी कविता के पांचों युगों-सिद्ध सामन्त युग, सूफो युग, भक्त युग, दरबारी युग और नवजागरण युग के जितने भी कवियों को हमने यहाँ संग्रहीत किया है, उनमें यह निःसंकोच कहा जा सकता है कि स्वयंभू सबसे बड़ा कवि था।' इतने से भी जब महापंडित राहुल जी को संतोष नहीं होता तो वे कहते हैं कि 'राम के हाथों मुक्ति पाने वालों का जब हमारे देश में नाम भी नहीं रह जायेगा, तब भी तुलसी की कद्र होगी, स्वयंभू के जैनधर्म का अस्तित्व भी न रहने पर वह नास्तिक भारत का महान् कवि रहेगा। उसकी वाणी में हमेशा वह शक्ति रहेगी कि कहीं अपने पाठकों को हर्षोत्फुल्ल कर दे, कहीं शरीर को रोमांचित कर दे और कहीं आँखों को भीगने के लिये मजबूर कर दे। ___ उक्त विद्वानों के निष्पक्ष वक्तव्यों से अपभ्रंश साहित्य को प्रकाश में लाने की प्रेरणा लोगों को मिली। आज अपभ्रंश साहित्य की प्रतिष्ठा हिन्दी के आदि स्रोत के रूप में हो चुकी है। यदि जैनेतर कहानियों की धार्मिक रचनाएँ कथा-कोटि में रखी जा सकती हैं तो न्यायोचित यही है कि हमें पक्षपातरहित होकर अपभ्रंश कथाकाव्यों की धार्मिक रचनाओं पर विचार करना चाहिये । कथासरित्सागर कथाकाव्य है परन्तु वह भी धार्मिक उद्देश्यपूर्ण है। इसकी पुष्टि डा० सत्येन्द्र के कथन से होगी'कथासरित्सागर की भाँति के अनेक ग्रन्थ भारतीय साहित्य में मिलते हैं और इनमें से अधिकांश धार्मिक उद्देश्यनिहित हैं। कथासरित्सागर भी साम्प्रदायिक भावना से मुक्त नहीं है । शैव और शाक्त भावनाओं का इसमें प्राधान्य है। शिव और देवी की पूजा और बलि, इनके दिये वरदान तथा विद्याधरत्व प्राप्त करना ये सभी साम्प्रदायिक दृष्टि की पुष्टि करते हैं। ऐसी ही विलक्षण दिव्यतापूर्ण कहानियाँ जैनियों के साहित्य में मिलती हैं। कथासरित्सागर के विद्याधर-विद्याधरियाँ आदि शिव-परिकर के हैं, जिन-परिकर के नहीं। इस प्रकार के बन्धन यदि स्वीकार किये
१. राहुल सांकृत्यायन, हिंदी काव्यधारा, प्रयाग, १९५४, पृ० ५०. २. वही, पृ० ५४. ३. डा० सत्येन्द्र, मध्ययुगीन हिन्दी साहित्य का लोकतात्विक अध्ययन, पृ० १६१.