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________________ अपभ्रंश कथा : परिभाषा, व्याप्ति और वर्गीकरण : २१३ के अतिरिक्त उनका संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश का कथा-साहित्य धार्मिक कोटि में डालकर बहुत पहले बहिष्कृत किया जा चुका था। विशेषरूप से यहाँ अपभ्रंश रचनाओं की चर्चा करना आवश्यक है। अपभ्रंश साहित्य की प्राप्त रचनाओं में से अधिकतम रचनाएँ जैन कवियोंलेखकों द्वारा लिखी गई हैं। उनका विषय भी जैन शलाका पुरुषों की कथा अथवा अन्य जैन कथाओं से सम्बन्धित होता है। यद्यपि जैन कथाओं के नायकों को जैन सिद्धान्तों का पालन करते हुए मोक्ष प्राप्त्यर्थ दीक्षित होते दिखाया गया है तथापि इन कथाओं में शृंगारिकता एवं व्यावहारिक पक्ष किसी बात में कम दिखाई नहीं पड़ता। साधारणतया जैन साहित्य में जैनधर्म का ही शान्त वातावरण व्याप्त है, सन्त के हृदय में शृंगार कैसा ? डा० रामकुमार वर्मा के इस कथन पर डा० शिवप्रसाद सिंह की टिप्पणो विवेकपूर्ण और यथार्थ है-'जैन काव्य में शान्ति या शम की प्रधानता है अवश्य किन्तु वह आरम्भ नहीं, परिणति है । संभवतः पूरे जीवन को शम या विरक्ति का क्षेत्र बना देना प्रकृति का विरोध है । जैन कवि इसे अच्छी तरह जानता है इसीलिए उसने शम या विरक्ति को उद्देश्य के रूप में मानते हुए भी सांसारिक वैभव, रूप, विलास और कामासक्ति का चित्रण भी पूरे यथार्थ के साथ प्रस्तुत किया है। इस टिप्पणी का प्रथम वाक्य अत्यधिक मार्मिक और जैन साहित्य की सम्पूर्ण व्याख्या के लिए एक तथ्य है। असल में जो लोग सिर्फ इतना जानते हैं कि जैनधर्म निवृत्ति मार्ग का पोषक है वे ही जैनधर्म की अपूर्ण जान.कारी होने के कारण धर्म एवं साहित्य पर अनेक दोषारोपण थोपते हैं। • जैन साहित्य के अध्ययन से पता चलता है कि उसमें भारतीय कला, विद्या एवं अन्य लोक पक्ष अथवा परलोक पक्ष आदि विषयों के अन्तर्गत ..एक व्यवस्थित अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। जैनों के यहाँ जीवन को दो भागों में विभक्त किया गया है : १. मनिधर्म और २. गहस्थधर्म। इन्हीं दोनों धाराओं की छाप उनके साहित्य पर पड़ती है। 'मनिधर्म के द्वारा एक ऐसे वर्ग की स्थापना का प्रयत्न किया गया है जो सर्वथा निःस्वार्थ, निःस्पह और निरीह होकर वीतराग भाव से अपने व दूसरों के कल्याण में ही अपना समस्त समय व शक्ति लगावे। साथ ही गृहस्थधर्म की १. डा० रामकुमार वर्मा, हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, पृ.१००. २. डा० शिवप्रसाद सिंह, सूरपूर्व ब्रजभाषा और उसका साहित्य, पृ० २८२.
SR No.002250
Book TitleApbhramsa Kathakavya evam Hindi Premakhyanak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremchand Jain
PublisherSohanlal Jain Dharm Pracharak Samiti
Publication Year1973
Total Pages382
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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