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. १९४ : अपभ्रंश कथाकाव्य एवं हिन्दी प्रेमाख्यानक
में जीव द्वारा मोक्ष की प्राप्ति का उपाय प्रतीकरूप से बताया गया है। मोक्ष-मार्ग की ओर अग्रसर होने में जीव को किन-किन बाधाओं का सामना करना होता है, इसका भी विशद वर्णन इस रचना में है। कवि ने मंगलाचरण आदि के बाद कथा प्रारम्भ की है। कथा के प्रारम्भिक अंश को उदाहरणार्थ प्रस्तुत किया जा रहा है जिससे रचना की प्रतीकात्मक शैली पर प्रकाश पड़ेगा। 'भवनगर नामक पट्टन के राजा मकरध्वज अपने महामन्त्री मोह और रति-प्रीति नामक दोनों पत्नियों के साथ सभाभवन में बैठे थे। वहाँ शल्य, गर्व, कर्म, मिथ्यात्व, दोष, आश्रव, विषय व क्रोध, लोभ, रौद्र व आर्त, मद, मान, सप्तभय व व्यसन आदि बली योद्धा विराजमान थे। इस प्रकार असंख्य नराधिपों तथा तीनों लोकों के प्रभुओं से सेव्यमान मकरध्वज गरज़ रहा था।" इस प्रकार इसमें जितने भी नाम हैं सभो साधना के साधक और बाधक रूप के. प्रतीक हैं । अतः कथा का प्रतीकात्मक होना स्वतः प्रमाणित है।
पर्युक्त आधार पर प्रतीकों को अपनी एक भारतीय परम्परा थी जो वैदिक काल से सूफ़ी काव्यों के समय तथा उसके बाद यानी आज तक चली आ रही है। पुनः मैं इस बात को दुहराना चाहूंगा कि सूफ़ियों की रचनाओं पर भारतीयता को छाप विदेशीपन की अपेक्षा कहीं अधिक है। मूलतः प्रतीकों के सन्दर्भ में यह बात और भी दृढ़ता से कही जानी चाहिए। कुछ अतिशय प्रगतिवादियों का विरोध हो सकता है कि प्रायः ही लोग अपनी बात को वेदों से जोड़कर प्रमाणित करने का प्रयत्न करते हैं। उनसे मेरा विनम्र अनुरोध इतना ही है कि यदि बिना आयास के हमें वेदों में भी अपनी बात की पुष्टि मिलती है और उससे हमारी शृंखला विघटित होने से बच जाती है तो निरर्थक क्या है ? हाँ, हमें तथ्यों को नकारने भर का दुःसाहस नहीं करना चाहिए।
१. डा० हीरालाल जैन द्वारा संपादित मयणपराजयचरिउ की प्रस्तावना, पृ० २.