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१०४ : अपभ्रंश कथाकाव्य एवं हिन्दी प्रेमाख्यानक
लक्षण माना ।' मूलतः तो रीति का सर्वप्रथम उल्लेख भामह का मिलता है । परन्तु द्रष्टव्य यह है कि भामह ने 'रीति' शब्द का प्रयोग नहीं किया है । उन्होंने जिन दो मार्गों का उल्लेख किया है वे हैं वैदर्भ तथा गौडीय । दोनों में से वे किसी एक को महत्त्व नहीं देते। वे कहते हैं कि यह काव्य गोडीय है, यह वैदर्भ है, इस प्रकार का कथन मूर्खों की चाल है । भामह का मत है कि काव्य के उदात्त होने के लिए उसका अलंकार से युक्त होना, अर्थ्य, अग्राम्य, न्याय्य तथा अनाकुल होना आवश्यक है, इस तरह का गौडीय मार्ग भी ठीक है और वैदर्भ मार्ग भी ठीक है । वैदर्भी के गुण अनतिपोष, अनतिवक्रोक्ति, प्रसाद, ऋजुता, कोमल और श्रुतिपेशलत्व हैं ।" भामह के पश्चात् दण्डी ने भी मार्गों का उल्लेख करते हुए गौड़ी रीति) को हेय दृष्टि से देखा है । उनके मतानुसार गोडी काव्यपद्धति पौरस्त्य है तथा उसकी विशेषता अनुप्रास और शब्दालंकारडम्बर है । अतः दी वैदर्भी मार्ग [ रीति ] को श्रेष्ठ मानते हैं ।
Cost के बाद काव्य की रीतियों के विषय में बाणभट्ट के हर्षचरित में चर्चा आई है। बाण ने काव्य की चार पद्धतियों का उल्लेख इस प्रकार किया है—' उत्तरवासी श्लेषमय काव्य को तथा पश्चिम के लोग केवल अर्थ को ही पसन्द करते हैं । दक्षिण के लोगों में उत्प्रेक्षा और गौड देश के लोगों में अक्षराडम्बर को पसन्द किया जाता है । इन चारों प्रकार का पद्धतियों का काव्य में एक स्थान पर मिलना दुर्लभ होता है । बाण के अनुसार यदि काव्य में इनका समन्वय हो तो वही उत्तम काव्य है । 'नवीन अर्थ, अग्राम्य, स्वभावोक्ति, सरल श्लेष, स्फुट रस और विकट
१. विशिष्टपदरचना रीतिः । - वही, २. ७.
२. गौडीयमिदमेतत्तु वैदर्भमिति किं पृथक् ।
गतानुगतिक न्यायान्नाख्येयममेधसाम् ॥ – काव्यालंकार, १. ३२.
३. वही, १. ३५.
४. वही, १. ३३.
५. इत्यनालोच्य बैषम्यमर्थालंकारडम्बरम्
अवेक्ष्यमाणा ववृधे पौरस्त्या काव्यपद्धतिः ॥ - काव्यादर्श, १. ५०.
६. श्लेषप्रायमुदीच्येषु प्रतीच्येष्वर्थमात्रकम् ।
उत्प्रेक्षा दाक्षिणात्येषु गोडेष्वक्षरडम्बरः ॥ - हर्षचरित.