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१०२ : अपभ्रंश कथाकाव्य एवं हिन्दी प्रेमाख्यानक
भवन निर्माण के लिए ईंट, सुर्खी- चूना ओर सीमेंट आदि आवश्यक सामग्री है । ठीक इसी प्रकार कथा - कहानी के लिए अनुभूति, कथावस्तु की योजना, चरित्र अवतारणा आदि तत्त्वों की आवश्यकता होती है और उन्हीं की रचना-प्रक्रिया का नाम शिल्प है । भाव प्रकाशित करने की जो प्रक्रिया है वह शैली है । शैली शिल्प नहीं अपितु उसका एक अंग है । शैली का सम्बन्ध व्यक्ति के शोल से या भाव से है। यही कारण है कि रचना-प्रक्रिया पर रचयिता के शील की जो छाप होती है वही उस रचना को शैली होती है । इसका कारण यह है कि शैली अभिव्यक्ति अथवा भाव - प्रकाशन का साधन है । परन्तु कोई भी रचनाकार या कलाकार अपनी कृति को संवार- सजाकर हो प्रस्तुत करना चाहता है अर्थात् वह उसे प्रभावोत्पादक देखने की आकांक्षा रखता है | साहित्य कला में शैली का स्थान महत्त्वपूर्ण है । शैली उस साधन का नाम है जो रमणीय, आकर्षक एवं प्रभावोत्पादक रूप से वाक्शक्ति के समस्त सरस तत्त्वों की अभिव्यक्ति में अभिनव तथा उचित शक्ति का संचार करे ।' संस्कृत साहित्य में वृत्ति और रीति का उल्लेख किया गया है । इन शब्दों का प्रचलन शिल्प सम्बन्धी भावों के प्राकट्य के लिए ही था । वृत्ति का उल्लेख भरतमुनि ने अपने नाट्यशास्त्र में किया है । कैशिकी, सात्वती, भारती और आरभटी ये चार प्रकार की वृत्तियाँ मानी गई हैं । इन वृत्तियों को भरतमुनि ने काव्य की माता माना है ( वृत्तयः
१. पं० करुणापति त्रिपाठी, शैली, पृ० २९.
२. वृत्तियों का लक्षण इस प्रकार दिया है :
कैशिकी -
या श्लक्ष्णनेपथ्यविधानचित्रा, स्त्रीसंकुला पुष्कलनृत्यगीता । कामोपभोगप्रभवोपचारा, सा कैशिकी चारुविलासयुक्ता ॥
- आचार्य विश्वनाथ, साहित्यदर्पण. सात्वती- - या सत्वजेनेह गुणेन युक्ता, न्यायेन वृत्तेन समन्विता च । हर्षोत्कटासंहृतशोभनावा, सा सात्वती नाम भवेत्तु वृत्तिः ॥ भारती - या वाक्प्रधाना पुरुषप्रयोज्या, स्त्रीवजिता संस्कृतवाक्ययुक्ता । स्वनामधेयैर्भरतैः : प्रयुक्ता सा भारती नाम भवेत्तु वृत्तिः ॥ — भरतमुनि, नाट्यशास्त्र.