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________________ हिन्दी प्रेमाख्यानकों का ऐतिहासिक विकास : ८९ और उसने सुजान को उगल दिया। ऐसे कार्यों से कथा रोचक बन पड़ी है। कथा इस प्रकार है : नेपाल के राजा धरनीधर निःसन्तान थे । शिव से याचना करने पर उन्हें सुजान नामक पुत्र पैदा हुआ। उसने कुछ काल में ही सब विद्याएँ सीख लीं। उसे मृगया का बहत शौक था। एक दिन सदल-बल वह आखेट से लौट रहा था । आँधी आ जाने से वह मार्ग भूल गया और एक देव की मढ़ी में जाकर सो गया। वह देव अपने दूसरे देव मित्र के साथ रूपनगर को राजकुमारी चित्रावली की वर्षगांठ का महोत्सव देखने गया। सोये हुए सुजान को भी वह अपने साथ लेता गया। देवों ने राजकुमार को चित्रसारी में सुला दिया। जागने पर चित्रसारो में चित्रावली के चित्र को देखकर वह उस पर मोहित हो गया। उसने वहाँ रखे हुए रंग और तूलिका से अपना चित्र बनाया और उसे राजकुमारी के चित्र के बराबर टांग कर सो गया। देव लौटते समय उसे लेते गये। प्रातः जागने पर रात की घटना से वह विकल हो गया। इसो समय उसे खोजते-खोजते कुछ लोग वहाँ आये और उसे लिवाकर चले गये । चित्रावली का वियोग राजकुमार को असह्य हो गया। उसके मित्र सुबुद्धि ने एक युक्ति बताई। उसी के अनुसार दोनों मित्र उसी मढ़ी में रहने लगे और दानसत्र खोल कर चलाने लगे। उधर चित्रावली ने जब राजकुमार का चित्र देखा तो वह भी विरह में विकल हो गई । एक कुटीचर ने राजकुमार के चित्र की सूचना रानी को दे दी। रानी ने इस चित्र को धुलवा दिया। इधर एक नपुंसक भृत्य राजकुमार को रूपनगर ले गया। वहाँ शिवमंदिर में चित्रावली और राजकुमार ने एक-दूसरे को देखा। जो कुटीचर चित्रावली ने निकाल दिया था उसने राजकुमार को अंधा कर दिया और उसे गुफा में छोड़ दिया। वहाँ उसे एक अजगर निगल गया । परन्तु उसकी विरहाग्नि से दग्ध हो अजगर ने उसे उगल दिया । एक वनमानुष ने उसे अंजन दिया जिससे उसे दिखाई देने लगा। थोड़ो देर बाद उसे एक जंगली हाथी ने पकड़ लिया। परन्तु एक बृहद् पक्षी उसे आकाश में ले उड़ा जिससे हाथी ने उसे छोड़ दिया और वह एक समुद्र में गिर गया। वहां से निकलकर वह सागरगढ़ पहुँचा और कंवलावती को पुष्प-वाटिका में विश्राम करने लगा। वहाँ राजकुमारी उसे
SR No.002250
Book TitleApbhramsa Kathakavya evam Hindi Premakhyanak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremchand Jain
PublisherSohanlal Jain Dharm Pracharak Samiti
Publication Year1973
Total Pages382
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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