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. ८६ : अपभ्रंश कथाकाव्य एवं हिन्दी प्रेमाख्यानक
इधर चित्ररेखा चिता में जलने को उद्यत थी । ठीक उसी समय उसे प्रीतम कुंवर दिखाई पड़े। उसने लज्जावश अपना सिर ढक लिया और चिता से उतर राजमन्दिर में चली गई। सखियों ने पुनः उसे सजाया। चारों ओर आनन्द-सा छा गया। जायसी ने 'प्रेम' की प्रसिद्ध गाथा से कथानक को अन्तिम रूप दिया :
कोटिक पोथी पढ़ि मरे, पण्डित भा नहि कोइ। ....
एकै अच्छर पेम का, पढ़े सो पण्डित होइ ॥ मधुमालती-मधुमालती नाम की कथा एक प्रख्यात कथा रही है। इस नाम की रचना का उल्लेख हमें जायसी के पदमावत, उसमानकृत चित्रावली और बनारसीदास के अर्द्ध-कथानक आदि में मिलता है। अब यह अलग प्रश्न है कि वह मंझनकृत मधुमालती थी अथवा कोई अन्य । । अस्तु, मंझनकृत मधुमालती जायसो के बाद की रचना है । इसका रचनाकाल सन् १५४५ है। जायसी ने जिस मधुमालती का उल्लेख किया है वह कोई दूसरी रचना रही होगी। इसकी कथा पूर्ण काल्पनिक है। अन्य प्रेमाख्यानकों की भांति इसमें भी अन्तरकथाएँ, बारहमासे आदि का वर्णन किया गया है। रचना की कहानी बड़ी रोचक है। अप्सराओं का मनोहर को ले जाना, योगी का वेश, नौका का टूटना आदि अनेक कथानक-अभिप्रायों का भी प्रयोग मिलता है । कथा इस प्रकार है :
कनैगिरिगढ़ नामक सुन्दर नगर में सूरजभान राजा राज्य करता था। उसके कोई सन्तान नहीं थी। इसी बीच कोई तपस्वी वहाँ आया। राजा ने तपस्वी की बारह वर्ष सेवा की। फलतः राजा को पुत्रोत्पत्ति हुई। ज्योतिषियों ने लग्न विचारकर उसका नाम मनोहर रखा । इसको चौदह वर्ष ग्यारह महीने का होने पर प्रेम-वियोग होगा और एक वर्ष तक भटकेगा। पाँचवें वर्ष में उसने विद्या आरम्भ की। बारह वर्ष में समस्त विद्याओं में पारंगत हुआ । राजकुमार जब बारह वर्ष का हुआ तो राजा ने उसका राजतिलक कर दिया और स्वयं तपस्या को चला गया। १. ( क ) डा० शिवगोपाल मिश्र द्वारा सम्पादित, हिन्दी प्रचारक, वाराणसी,
ई० १९५७. ( ख ) डा० माताप्रसाद गुप्त द्वारा सम्पादित, मित्र प्रकाशन, इलाहाबाद,
ई० १९६१.