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________________ है, उनको उस काल की रचना मान लेना चाहिए । संशोधकों ने उनके कर्ता व समय आदि का निर्धारण अपनी-अपनी पुस्तकों में किया है। * दिगंबर परंपरा में शास्त्र लेखन श्वेतांबर परंपरा में श्रुत साहित्य को सुरक्षित रखने के लिए जिस प्रकार लिपिबद्ध करने का प्रयास हुआ, उसी प्रकार का प्रयत्न दिगंबर परंपरा में भी षटखंडागम आदि अपने साहित्य को सुरक्षित रखने के लिए प्रारंभ किया गया। कहा जाता है कि आचार्य धरसेन सौराष्ट्र प्रदेश स्थित गिरनार पर्वत की चन्दर गुफा में रहते थे। वे अष्टांग महानिमित्त शास्त्र में पारंगत थे। उन्हें ऐसा मालूम हो गया कि अब श्रुत साहित्य के विच्छेद होने का समय आ गया है । यह जान कर प्रवचन प्रेमी धरसेन ने दक्षिण प्रदेश में विचरने वाले महिमा नगरी में एकत्र आचार्यों को एक पत्र भेजा। पत्र पढ़ कर आचार्यों ने आंध्रप्रदेश के बेन्नातट नगर के विशेष बुद्धि संपन्न दो शिष्यों को आचार्य धरसेन के पास भेज दिया। आये हुए शिष्यों की परीक्षा लेने के बाद धरसेन ने उन्हें अपनी विद्या- श्रुतसाहित्य पढ़ाना प्रारंभ किया। पढ़ते-पढ़ते . आषाढ़ शुक्ला एकादशी का दिवस आ पहुँचा। इस दिन ठीक दोपहर में उनका अध्ययन पूर्ण हुआ । आचार्य दोनों शिष्यों पर बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने उनमें से एक का नाम भूतबली व दूसरे का नाम पुष्पदन्त रखा । इसके बाद दोनों शिष्यों को वापस भेजा। उन्होंने सौराष्ट्र से वापस जाते हुए अंकुलेसर (अकुलेश्वर या अंकश्नेश्वर) नामक ग्राम में चातुर्मास किया। तदनन्तर आचार्य पुष्पदंत वनवास के लिए चले गये एवं भूतबली द्रमिल (द्रविड) में गये । आचार्य पुष्पदन्त ने जिनपालित नामक शिष्य को दीक्षा दी । फिर बीस सूत्रों की रचना की। उन्होंने, जिनपालित को पढ़ाकर उसे द्रविड देश में आचार्य भूतबली के पास भेजा । भूतबली ने यह जानकार कि आचार्य पुष्पदन्त अल्पायु वाले हैं तथा महाकर्म प्रकृति प्राभृत संबंधी जो कुछ भी श्रुत साहित्य है, वह उनके बाद नहीं रह सकेगा, अत: द्रव्य प्रमाणानुयोग के प्रारंभ में रख कर षटखंडागम की रचना की । इस प्रकार इस खंड सिद्धांत श्रुत के कर्ता के रूप में आचार्य भूतबली और पुष्पदन्त दोनों माने जाते हैं। इस कथानक में सौराष्ट्र प्रदेश का उल्लेख आता है । श्री देवर्द्धि गणि की ग्रंथ लेखन की प्रवृत्ति का संबंध भी सौराष्ट्र प्रदेश की वल्लभी नगरी के साथ है । इससे यह प्रतीत होता है कि तत्कालीन सौराष्ट्र के जैन संघ ने श्रुत सुरक्षा के लिए कितना प्रयत्न किया था। उसके इस पवित्रतम कार्य का ही यह परिणाम है कि आज भी जैन आगमों का बहुत सा अंश सुरक्षित रह सका है। १. षट्खंडागम प्रथम भाग पृष्ठ ६७-७१ (२४)
SR No.002248
Book TitleJain Agam Sahitya Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size6 MB
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