SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 95
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अपने शिष्य को पढ़ाता था। जैन श्रमण के लिए अपना सुशिक्षित पुत्र जैन श्रुत के अध्ययन का अधिकारी नहीं, किन्तु श्रमण शिष्य चाहे फिर वह शिष्य योग्य, कुशाग्र बुद्धि या अयोग्य, मंदबुद्धि हो, लेकिन श्रुत के अध्ययन का अधिकारी वही होता था । इसके अतिरिक्त वेदाध्ययन का अधिकार तो ब्राह्मण वर्ग तक ही सीमित था, किन्तु जैन श्रुत की सुरक्षा या अध्ययन का अधिकार किसी वर्ग विशेष के अधीन न हो कर चार वर्णों में से जो भी श्रमण बन जाता था, उसी को मिल जाता था । वहीं जैन श्रुत के अध्ययन का अधिकारी हो जाता था । ब्राह्मण वर्ग को जीवन के प्रथम चरण में (जिसे ब्रह्मचर्याश्रम कहते हैं ) वेदाध्ययन करना अनिवार्य था। अपने मान-सम्मान की सुरक्षा एवं समाज की व्यवस्था को सुव्यवस्थित बनाये रखने के लिए यह अनिवार्य था। ब्राह्मण के लिए वेदाध्ययन सर्वस्व था, लेकिन जैन श्रमण के लिए आचार - सदाचार ही सर्वस्व था । जैन श्रमण दीक्षित हो जाने के बाद जैन श्रुत के अध्ययन का अधिकारी अवश्य बन जाता था, किन्तु उसमें योग्यता है या नहीं, इसका कोई विचार नहीं किया जाता था । इसलिए कोई मंदबुद्धि शिष्य संपूर्ण श्रुत का पाठ न भी करे, तो भी उसकी श्रमणचर्या में किसी प्रकार की बाधा नहीं आती थी और न उसे अयोग्य समझा जाता था । 1 इसके अतिरिक्त जैन श्रमणचर्या को देखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि जैन मुनियों को मन-वचन-काया से वैसा कोई भी कार्य या प्रवृत्ति न करने की न करवाने की और न करते हुए अनुमोदन करने की प्रतिज्ञा होती है, जिसमें हिंसा हो । वे ऐसी कोई भी वस्तु स्वीकार नहीं करते, जिसकी प्राप्ति में तनिक भी हिंसा हो । आचारांग आदि उपलब्ध सूत्रों को देखने से उनकी यह चर्या, स्पष्ट मालूम होती है । प्राचीन जैन श्रमण इस प्रतिज्ञा का अक्षरश: पालन करने का प्रयत्न करते थे । लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि उन्हें धर्म प्रचार इष्ट नहीं था । वह इष्ट अवश्य था, किन्तु निरपवाद चर्या के पालन करने के आकांक्षी होने से केवल आचरण एवं उपदेश को ही धर्म प्रचार का साधन मानते थे । इस स्थिति में भी वे चाहते तो धर्म प्रचार की योजना को मूर्तरूप देने के लिए आगमों को लिपिबद्ध करके सुरक्षित रख सकते थे, लेकिन उसमें भी हिंसा और परिग्रह की संभावना होने से उन्होंने लेखन प्रवृत्ति को नहीं अपनाया । उसमें भी उन्होंने संयम की विराधना देखी ।" अहिंसा और अपरिग्रह व्रत का भंग उन्हें असह्य था । लेकिन जब आगमों की सुरक्षा की ओर उनका ध्यान गया और उन्हें लिपिबद्ध करना आवश्यक समझा गया, तब तक वे आगमों को अधिकांश भूल चुके थे । १. पोत्थएसु घेप्पंतएसु असंजमो भवइ । - दशवैकालिक चूर्णि पृष्ठ २१ (२०)
SR No.002248
Book TitleJain Agam Sahitya Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy