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जैनों में एक विशिष्ट व आदरणीय वर्ग था, जो उपाध्याय के रूप में ससंमान जाना जाता था। संघ में इस वर्ग की विशेष प्रतिष्ठा थी और अब भी है। इस की प्रतीति महामंत्र नवकार में माने गये पंच परमेष्ठियों में उपाध्याय को एक परमेष्ठी के रूप में ग्रहण करने से हो जाती है। नवकार का चौथा पद है- णमो उवज्झायाणं । अर्थात् उपाध्याय भगवन्तों को नमस्कार हो।
धर्मशास्त्रों को सुव्यवस्थित रखने के लिए उत्तरदायी निश्चित वर्ग के रहने, श्रमण वर्ग को स्वाध्याय करने का निश्चय विधान होने एवं संघ द्वारा श्रुत को सुरक्षित रखने के प्रयत्न करने की व्यवस्था होने पर भी जैन परंपरा में आगमों के रूप में भगवान महावीर के जिन उपदेशों को गणधरों ने ग्रंथित किया था, उनका वही रूप आज हमारे पास नहीं है। क्या कारण है कि जैन श्रुत से भी प्राचीन वेद तो सुरक्षित रह सके और जैन श्रुत संपूर्ण नहीं, तो अधिकांश नष्ट हो गया? कई संपूर्ण ग्रंथ विस्मृत हो चुके हैं एवं कई आगम ग्रंथों की अवस्था विकृत हो गयी? इस प्रश्न का समाधान इस प्रकार
__अन्याय कारणों का तो आगे उल्लेख किया ही जा रहा है, लेकिन इस कारण को भी दृष्टि में रखना पड़ेगा कि आगमों की भाषा में (प्राकृत होने के कारण) परिवर्तन होना स्वाभाविक है। इस कारण ब्राह्मणों की तरह जैनाचार्य और उपाध्याय चाहते हुए भी अंग ग्रंथों की अक्षरश: सुरक्षा नहीं कर सके । फिर भी यह तो स्वीकार किया जा सकता है कि अंगों का जो कुछ भी अंश आज उपलब्ध है, वह भगवान महावीर के उपदेश के अधिक निकट हैं। उसमें परिवर्तन और परिवर्द्धन हुआ है, किन्तु वह समूचा नया या मनगढंत है, यह नहीं कहा जा सकता । इतिहास इस बात का साक्षी है कि जैन संघ ने संपूर्ण श्रुत को सुरक्षित बनाने के लिए पुन: पुन: प्रयत्न किये हैं। उनका संकेत आगे किया जा रहा है।
दूसरा कारण यह है कि वेदों की सुरक्षा में पिता-पुत्र और गुरु-शिष्य दोनों प्रकार की वंश परंपराओं ने अपना सहयोग दिया है । पिता ने अपने पुत्र को और गुरु ने अपने शिष्य को वेद सिखा कर वेदपाठ की अव्याहत परंपरा चालू रखी तथा एक वर्ण विशेष ब्राह्मण वर्ण को ही वेदपठन का अधिकार था, जिससे ब्राह्मणों को सुशिक्षित पुत्र या शिष्य प्राप्त होने में कोई कठिनाई नहीं आती थी। किन्तु जैनागम की सुरक्षा में जन्म-वंश परंपरा को कोई स्थान नहीं रहा। पिता अपने पुत्र को नहीं, किन्तु गुरु १. वेद साहित्य यद्यपि विशेष प्राचीन है । लिखने-लिखाने की प्रवृत्ति का भी पूरा ध्यान रखा गया है, लेकिन ऐसा होते हुए भी प्राचीन काल में वेदो की जितनी श्लोक संख्या मानी जाती है, उतनी वर्तमान काल में नहीं है।