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________________ आचार्य जिनभद्र के उक्त कथन से ऐसा प्रतीत होता है कि जिस समय संघ में शास्त्रों की मुख्यता गौणता का प्रश्न उठा होगा कि किस शास्त्र विशेष को महत्व दिया जाए व किसे कम महत्व दिया जाए, तब उसके समाधान के लिए उन्होंने उपर्युक्त तीन विशेषताएं बतला कर समस्त शास्त्रों एवं उनके मानने वालों की प्रतिष्ठा सुरक्षित रख कर समन्वय कर दिया होगा । वर्तमान में अंग बाह्य के लिए जो उपांग शब्द प्रचलित हैं वह अति प्राचीन नहीं हैं तो भी चूर्णियों एवं तत्वार्थ भाष्य जितना प्राचीन तो है ही । वर्तमान में जो अमुक अंग का अमुक उपांग है, यह भेद भी प्राचीन प्रतीत नहीं होता, क्योंकि अंगोपांग रूप भेद प्राचीन होता तो नन्दीसूत्र में इसका उल्लेख अवश्य मिलता । इससे स्पष्ट है कि नन्दी सूत्र के समय में अंग और उपांग रूप भेद करने की नहीं, किन्तु अंग-अंनग अथवा अंग प्रविष्ट - अंग बाह्य रूप भेद करने की प्रथा रही है । दूसरी बात यह कै कि उपांगों के क्रम के विषय में विचार करने पर मालूम होता है कि यह क्रम अंगों के क्रम से सम्बद्ध नहीं है. उपांग का मतलब होता है कि जो विषय अंग में है, उसी से सम्बन्धित विषय का वर्णन किया जाए। अथवा जो विषय अंगों में यथास्थान स्पष्ट न किया जा सका हो उसे उपांग में स्पष्ट करना । ऐसा होने पर अंग और उपांग का पारस्परिक सम्बन्ध बैठ सकता है। लेकिन वर्तमान में माने गए उपांगों से यह बात स्पष्ट नहीं होती । जैसे ज्ञाताधर्मकथा का उपांग जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति और उपासक दशा का उपांग चन्द्र प्रज्ञप्ति कहा जाता है, लेकिन इनके विषयों में कोई समानता या सामंजस्य नहीं है । यहीं बात अन्य अंगों- पांगों के विषय मे समझनी चाहिए । इस प्रकार बारह अंगों की उनके उपांगों के साथ कोई एकरूपता नहीं दीखती । सिर्फ लोकरूढ़ि से अंग उपांग का सम्बन्ध बैठाया गया हो, ऐसा प्रतीत होता है। I उपांग और अंग बाह्य ये दोनों शब्द यद्यपि अंग व्यतिरिक्त आगमों के लिए प्रयुक्त हुए हैं, लेकिन इनके अर्थ में बड़ा अन्तर है । अंग बाह्य शब्द से तो ऐसा आभास होता है कि इन आगमों का अंगों के साथ सम्बन्ध नहीं है, जबकि उपांग शब्द का अंगों के साथ सीधा सम्बन्ध है । यह शब्द किसने प्रचलित किया, यह जानने का तो कोई साधन नहीं है, लेकिन प्रतीत होता है कि अंग बाह्यों की प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए अथवा अंगों के समकक्ष प्रामाण्य को स्थापित करने के लिए किसी गीतार्थ ने उन्हें उपांग नाम से संबंधित करना प्रारम्भ किया होगा । इसी तरह अंग बाह्य और अनंग प्रविष्ट ये दो शब्द भी विचारणीय हैं । यद्यपि दोनों का सामान्य आशय यह लिया जाता है कि द्वादशांगों से भिन्न आगम, लेकिन (6)
SR No.002248
Book TitleJain Agam Sahitya Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size6 MB
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