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________________ * आगमों के वर्गीकरण का रूप वैसे तो जैन परम्परा में समस्त श्रृत ज्ञान के मुख्य रूप से द्रव्य श्रुत और भाव श्रुत ये दो भेद करके उनका भाषा, ध्वनि, लिपि सम्यक्, मिथ्या, शैली, वक्ता, मुख्य गौण आदि की अपेक्षाओं से विशद विचार किया है, लेकिन प्रस्तुत में मूल उपदेष्टा के आशय की अधिक निकटता, मुख्यता को ध्यान में रखकर आगमों का जिन दो भेदों में वर्गीकरण किया गया है, उनके नाम हैं-अंग और अंगबाह्य ।' ___ अंग बाह्य ग्रंथों के लिए प्रकीर्णक, संज्ञा भी प्रचलित थी, ऐसा नंदी सूत्र से प्रतीत होता है। निरायवली सूत्र के प्रारम्भिक उल्लेख से प्रतीत होता है कि अंग शब्द को ध्यान में रख कर अंग बाह्य ग्रंथों की संज्ञा उपांग भी थी और उससे यह भी ज्ञात होता है कि किसी एक समय निरायावली आदि पाँच ही उपांग माने जाते थे। समवायांग, नंदी, अनुयोग और पाक्षिक सूत्र के समय तक समग्र आगम के मुख्य दो ही विभाग थे- अंग और अंग बाह्य । आचार्य उमास्वाति के तत्वार्थ सूत्र भाष्य से भी यह फलित होता है कि उनके समय तक भी अंग प्रविष्ट और अंग बाह्य ऐसे ही विभाग प्रचलित थे।३ * अंग-अंगबाह्य आदि शब्दों का आशय सामान्य दृष्टि से अंग और अंग बाह्य आदि शब्दों का प्रयोग प्रधानताअप्रधानता, मुख्यता, गौणता में रखकर किया गया है कि आचार आदि बारह अंग जैन श्रुत में प्रधान हैं, विशेष प्रतिष्ठित हैं। विशेष प्रामाण्य युक्त हैं एवं मूल उपदेष्टा के आशय के अधिक निकट हैं, जबकि अंग बाह्य सूत्र अंगों की अपेक्षा गौण हैं तथा मूल उपदेष्टा के आशय के कम निकट हैं। श्री जिनभद्र गणि क्षमाश्रमण ने इन दोनों का पार्थक्य प्रदर्शित करने के लिए कहा है अंगश्रत का सीधा सम्बन्ध गणधरों से हैं, जबकि अनंग अंग बाह्य श्रृत का सम्बन्ध स्थविरों से है । अथवा गणधरों के पूछने पर तीर्थंकर परमात्मा ने जो उपदेश दिया बताया, वह अंगश्रुत है एवं बिना पूछे जो अपने आप बताया, वह अंग बाह्य श्रुत है। अथवा जो श्रुत सदा एक रूप रहता है, वह अंगश्रुत है एवं परिवर्तित अर्थात् न्यूनाधिक होता रहता है वह अंग बाह्य श्रुत हैं। १. अनुयोग द्वार सूत्र ३/ नंदी सूत्र ४४ में भी ऐसे ही दो भेद हैं । वहाँ अंगवाह्य के लिए अणंगपविट्ठ __ शब्द भी प्रयुक्त है । (सूत्र ४४ का अन्त) २. २.. से तं. अणंग परिंटु । नंदी सूत्र ४४ ३. तत्वार्थ भाष्य १/२० ४. गणहर थेर कयं वा आएसा मुक्क वागरणओ वा । धुंव चल विसेसओ वा अंगाणंगेसु नाणंत्त ॥ विशेषावश्यक भाष्य ५५० (७)
SR No.002248
Book TitleJain Agam Sahitya Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size6 MB
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