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________________ मनुष्य पुराण प्रिय है। प्राचीनता के प्रति उसे गौरव होता है। इसीलिए प्राचीनकाल में शास्त्र प्रामाण्य के लिए अपौरुषेयत्व एवं अलौकिकता आवश्यक मानी गई हो और जो शास्त्र नया हो तथा किसी पुरुष विशेष ने बनाया हो, उसकी प्रतिष्ठा अलौकिक एवं अपौरुषेय शास्त्र की अपेक्षा कम आँकी जाती हो । इसी कारण संभवतः वेदों को अलौकिक एवं अपौरुषेय मानने की परंपरा शुरू हुई हो । जैनों के सामने भी यही आक्षेप हुआ होगा कि तुम्हारे आगम तो नए हैं, उनका कोई प्राचीन आधार नहीं है, अतः उनको प्रमाण नहीं माना जा सकता। इस भ्रांत धारणा का निराकरण करने के लिए जैनों ने उत्तर दिया कि यदि प्रामाण्य की कसौटी अपौरुषेयत्व और अनादित्व ही हो तो द्वादशांगभूत आगम गणिपिटक कभी नहीं था, यह भी नहीं, कभी नहीं है, यह भी नहीं और कभी नहीं होगा, यह भी नहीं। वह तो था और रहेगा। वह ध्रुव है, नियत है, शाश्वत है, अक्षय है, अव्यय है, अवस्थित है और नित्य है । इसके पीछे तर्क था, युक्ति थी, जिसका उल्लेख इस प्रकार है___ संसार में प्रज्ञापनीय भाव अनादि अनन्त है, किन्तु सत्य एक है और तथ्य भी एक है। लेकिन विभिन्न देशकाल पुरुष की अपेक्षा से उस सत्य का आविर्भाव नाना प्रकार से होता है। अतः जब कभी कोई भी सम्यग्ज्ञाता उसकी प्ररूपणा करेगा, तो काल भेद होने पर भी उस प्ररूपणा में भेद नहीं हो सकता। क्योंकि इन आविर्भावों में एक ही सनातन सत्य अनुस्यूत रहता है । इसी बात को स्पष्ट करने के लिए आचारांग सत्र में कहा कि जो अरिहंत हो गए हैं, जो अभी वर्तमान हैं और जो भविष्य में होंगे, उन सबका एक ही उपदेश है कि किसी भी प्राण, जीव, भूत और सत्व की हत्या मत करो, उन पर अपना स्वामित्व मत जमाओ, उनको परतंत्र मत बनाओ और उन्हें मत सताओ । यही धर्म ध्रुव है, नित्य है, शाश्वत है और विवेकी पुरुषों द्वारा बताया गया है। इसका फलितार्थ यह हआ कि यदि सनातन सत्य की ओर दष्टि देकर आविर्भाव के प्रकारों की उपेक्षा कर दी जाए तो जो भी राग, द्वेष विजेता जिन होगा, उसके उपदेश में अंतर, भेद को अवकाश नहीं है । ऐसा कोई काल नहीं, जब सनातन सत्य का अभाव हो जाए। अतएव इस दृष्टि से वेद के समान जैन आगमों को भी अनादि अनन्त एवं अपौरुषेय कहा जा सकता है। . इस स्थिति में प्रश्न होता है कि सांप्रत काल में सत्य का आविर्भाव किसने किया और कैसे किया? इस दृष्टिकोण से विचार किया जाए, तो जैन आगम सादि अपौरुषेय सिद्ध होते हैं१ नंदीसूत्र ५७, समवायांग सूत्र १४८ २. आचारांग४/१२६ - (२) ।
SR No.002248
Book TitleJain Agam Sahitya Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size6 MB
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