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अध्याय-१ आगम: सांप्रतिक अविर्भाव की भूमिका सभी धर्म परम्पराओं में अपने-अपने धर्मग्रंथों का महत्व है । इस दृष्टि से यदि हम भारतीय धर्मग्रंथों का मूल्यांकन करें तो वैदिक धर्म में जैसा 'वेद' का और बौद्ध धर्म में जैसा 'त्रिपिटक' का महत्व है, वैसा ही महत्व जैन धर्म में आगमों का है। * आगम का लक्षण
आप्त के उपदेश के कथन को आगम कहते हैं । अर्थात् पूर्वापर विरुद्धादि दोषों के समूह से रहित एवं सम्पूर्ण पदार्थों के द्योतक आप्त वचन आगम है और आप्त उसे कहते हैं, जिसने राग, द्वेष, मोहादि दोषों का निःशेष रूपेण क्षय होने से सर्वज्ञ, वीतराग और सर्वदर्शी अवस्था प्राप्त कर ली है। अतः सर्वज्ञ, जिन, वीतराग होने से आप्त का वचन प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों के विरोध से रहित, वस्तु स्वरूप का दर्शक तथा सभी जीवों का हित करने वाला होता है । उसके द्वारा समस्त अनन्त धर्मों से विशिष्ट जीव आदि पदार्थ जाने जाते हैं । इसीलिए जैन धर्म में मुख्य रूप से जिनों के उपदेश, कथन एवं वाणी की संकलना जिन ग्रंथों में हुई है, उन्हें और उनसे अनुप्राणित अन्य शास्त्रों को 'आगम' कहकर प्रमाण माना गया है। . * आगमन प्रामाण्य : वैदिक दृष्टि
आगम प्रमाण के संबंध में जैन दृष्टिकोण का तो ऊपर संकेत किया गया है, लेकिन वेदों के प्रामाण्य के बारे में मीमांसकों को का मत है कि उन्हें किसी ने बनाया नहीं है। वे सनातन हैं । अनादिकाल से इसी प्रकार चले आ रहे हैं। उनकी सत्यता किसी व्यक्ति विशेष के गुणों पर आधारित नहीं है । अमुक व्यक्ति ने वेद बनाए और वह व्यक्ति वीतराग है, पूर्ण है, सर्वज्ञ हैं और अनन्त ज्ञानी है, इसलिए वेद प्रमाणभूत है, ऐसा नहीं मानना चाहिए और अमुक काल में उनकी रचना हुई है, यह बात भी नहीं है । वेद तो अनादि एवं अपौरुषेय हैं और यही अनादित्व और अपौरुषेयत्व उनके प्रामाण्य के कारण हैं। १ [क] आप्तव्याहतिरागमः - वसुनंदी श्रावकाचार
[ख] आप्तोपदेशः शब्द - न्याय सूत्र १/१०७ २. आप्तिर्हि राग द्वेष मोहाना मैकान्तिक आत्यंतिकश्च क्षयः सा येषामस्ति ते खल्वाप्ताः।
- स्याद्वाद मंजरी