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________________ के नाम, प्रमुख व्याख्याकार, (प्राकृत, संस्कृत तथा लोकभाषा के) व्याख्याकारों का, उनकी अन्यान्य कृतियों का और व्यक्तित्व का समालोचना - पूर्वक परिचय कराया है । यह 'सांकेतिक विहंगावलोकन' होते हुए भी अपने आपमें परिपूर्ण है । ९ - आगम साहित्य में समाज व्यवस्था - यह अध्याय इस ग्रंथ का शिखर रूप कहा जा सकता है, क्योंकि अन्यान्य लेखक आगमों की महत्ता व्यक्त करने के लिये धार्मिक, दार्शनिक और सांस्कृतिक पक्ष पर ही लिखते रहे हैं । जनमानस को छूने वाले, उनसे निकटता स्थापित करने तथा सामाजिक व्यवस्था के ग्राह्यतत्वों को आत्मसात कराने में यह अध्याय मार्गदर्शक होगा। इसमें 'वर्णव्यवस्था, वर्णों की उत्पत्ति, प्रत्येक वर्ण के कार्य, श्रेणी संगठन, पारिवारिक जीवन, विवाह - प्रथा, सन्तान के प्रति ममत्व, लौकिक देवी देवता, जादू-टोना और अन्धविश्वास, आमोद-प्रमोद, मनोरंजन के साधन, जीवनोपयोगी साधन, जीवन यापन स्तर, मरण संस्कार, चिकित्सा आदि के तात्विक विषयों को उद्धृत किया है । १० - आगम साहित्य में शासन व्यवस्था के उल्लेख- शीर्षक इस अध्याय में राजा और राजपद, राजा की दिनचर्या, राजा का उत्तराधिकारी, राज्याभिषेक, राजा का अन्तःपुर, राजा के प्रधान पुरुष, सैन्य व्यवस्था, राज्य की आय के स्रोत, गाँव, एक छत्र राज, अपराध और दण्ड, हाकार और धिक्कार नीतियाँ, न्याय व्यवस्था आदि विषयों पर सूक्ष्म अध्ययन पूर्वक तत्कालीन स्थिति का दिग्दर्शन अत्यन्त उपयोगी हुआ है। ११ - आगमों में अर्थोपार्जन व्यवस्था का उल्लेख- यह जनजीवन के अत्यावश्यक अंग का प्रकाशक अध्याय है। इसमें कृषि, श्रम, पूंजी और प्रबंध सम्बंधी अर्थोपार्जन के साधनों का विवेचन हुआ है। “कृषि उपज, अन्न की सुरक्षा के उपाय, पशुपालन, वनोपज, कताई-बुनाई, आभूषण निर्माण, उपकरण निर्माण, सुगन्ध, इत्र, धूप आदि के व्यापारी, अन्य कारीगरी, अन्य पेशेवर लोग, भृत्य, दास आदि, अर्थोपार्जन के विविध रूप प्रमुख व्यापार केंद्र, यातायात के साधन, प्रस्थान समारोह, मुद्रा, माप तोल, उधार लेना देना, व्यापारिक संगठन जैसे - उपशीर्षकों के माध्यम से सम्पूर्ण जीवन शैली का विराट दर्शन इस अध्याय का लौकिक प्रस्थान है 1 १२ - आगम साहित्य में धार्मिक व्यवस्था का रूप - जैन आगमों का प्रमुख प्रतिपाद्य धर्म है। उसके परिप्रेक्ष्य में मानव के अस्तित्व की समस्त आस्थाएँ, व्यवस्थाएं, प्रतिष्ठाएँ तथा निष्ठाएँ स्वतः स्फूर्त होती गई किन्तु इनका प्रकाश शारदीय पूर्णिमा के चन्द्रमा के परम आह्लादक प्रकाश में नक्षत्रों के समान टिमटिमाते रहे । लगता है ये उपर्युक्त ९, १० तथा ११ वें अध्यायों में पुनर्जीवन को ही प्राप्त नहीं हुए, अपितु अमरत्व की स्थिति में भी पहुँच गये । (५१)
SR No.002248
Book TitleJain Agam Sahitya Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size6 MB
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