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लिए स्थानांग ३/१५७, ५/३५५, १०/७१२ का अवलोकन करना चाहिए । अनेक उदाहरण ऐसे भी मिलते हैं कि भावना को थोड़ा सा उत्तेजन मिलने पर दीक्षा ले ली जाती थी। भगवान अरिष्टनेमि और राजीमती का वृत्तांत इसके उदाहरण हैं । भगवान अरिष्टनेमि ने बाड़े में बँधे पशुओं की चीत्कार सुनकर अपनी बारात लौटा ली और उन्होंने प्रव्रज्या धारण कर ली । राजीमती ने भी उनका अनुसरण किया। * निग्रंथों के प्रकार ___ आगम में निग्रंथों के पाँच प्रकार बताए हैं— पुलाक (अतिचार लगाने वाला निग्रंथ), बकुश (दोष लगाने वाला निग्रंथ), कुशील, निग्रंथ और स्नातक । इनमें भी प्रत्येक के पाँच-पाँच अवान्तर प्रकार हैं। वे इस प्रकार हैं
पुलाक- ज्ञान पुलाक, दर्शन पुलाक, चारित्र पुलाक और यथासूक्ष्म पुलाक । बकुश- आयोग, अनायोग, संवृत्त, असंवृत्त और यथा सूक्ष्म । कुशील-ज्ञान, दर्शन, चारित्र, लिंग और यथासूक्ष्म ।
निग्रंथ- प्रथम समय, अप्रथम समय, चरम समय, अचरम समय और यथा सूक्ष्म ।
स्नातक- अच्छवी, अशवन, अकर्मांश, शुद्ध ज्ञान और अपरिश्रावी।
ऊपर जो कुछ भी दिग्दर्शन कराया गया है, वह निर्ग्रथों से संबद्ध है । लोक जीवन में इन्हें श्रमण कहा जाता था। इनके अतिरिक्त भगवान महावीर और उत्तरवर्ती आगमिक युग में विभिन्न धार्मिक मंतमतान्तरों, उनके अनुयायी तपस्वियों, परिव्राजकों आदि की परंपराएँ भी विद्यमान थी। उनके बारे में भी आगमों में यत्र तत्र उल्लेख मिलते हैं । अब संक्षेप में उनकी जानकारी प्रस्तुत करते हैं।
* अन्य श्रमण परंपराएँ ___ तत्कालीन धार्मिक परंपराओं में श्रमण और माहण ये दो पवित्र शब्द थे और ऋषियों का बोध कराने के लिए प्रयुक्त किए जाते थे। जैन आगमों में भी श्रमण (समण)
और ब्राह्मण-(माहण) का उल्लेख बहुत आदर के साथ किया गया है । श्रमण जंगलों में रहते थे और वे लोगों की परम श्रद्धा के पात्र थे । सामान्य जन ही नहीं, बल्कि राजा-महाराजा तक उनसे अत्यधिक प्रभावित थे। वैसे तो श्रमण शब्द मुख्य रूप से जैन परंपरा के मुनियों का बोधक था, लेकिन पूर्वोक्त कारण से प्रत्येक धर्म परंपरा भी अपने-अपने ऋषियों के लिए श्रमण संबोधन का प्रयोग करती थी।
इस प्रकार जब श्रमण शब्द ने सर्व प्रचलित रूप ले लिया, तब जैन श्रमणों का उन सबसे पार्थक्य बताने के लिए निग्रंथ शब्द का प्रयोग किया जाने लगा। इसका
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