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________________ सम्मिलित होते थे । आगमों में इसके अनेक उदाहरण देखने को मिलते हैं । उनमें से 1 यहाँ धावच्चा पुत्र और मेघकुमार के निष्क्रमण समारोह का उल्लेख करते हैं, जिससे यह ज्ञात हो सके कि तत्कालीन समाज में एतद् विषयक कितना उल्लास और उत्साह देखा जाता था । थावच्चा पुत्र ने निर्ग्रथ प्रवचन का उपदेश श्रवण कर प्रव्रज्या ग्रहण करने की इच्छा प्रकट की, तब उसकी माता राजा के योग्य भेंट ग्रहण कर अपने मित्र आदि के साथ श्रीकृष्ण वासुदेव की सभा में उपस्थित हुई । उसने निवेदन किया- “महाराज ! मैं अपने पुत्र का निष्क्रमण सत्कार करना चाहती हूँ । अतएव आपका अत्यंत अनुग्रह होगा, यदि आप छत्र, मुकुट और चामर देने की कृपा करेंगे ।” श्रीकृष्ण वासुदेव ने उत्तर दिया- "तुम निश्चित रहो। तुम्हारे पुत्र का निष्क्रमण सत्कार मैं करूँगा ।" इसके पश्चात् चतुरंगिणी सेना के साथ विजय हस्तिरत्न पर आरूढ़ होकर वे थावच्चापुत्र घर गए और उसे बहुत समझाया बुझाया । जब किसी भी हालत में वह अपने इरादे से नहीं डिगा, तब श्रीकृष्ण ने घोषणा कराई कि जो कोई भी राजा, युवराज, रानी, राजकुमार, ईश्वर, तलवार, कौटुम्बिक, भांडविक इभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति और सार्थवाह श्रमण दीक्षा अंगीकार करेगा, उसके कुटुम्ब परिवार की देखभाल राज्य की ओर से की जाएगी। यह सुनकर कितने ही स्त्री पुरुष अपनी पालकियों में सवार होकर दीक्षा ग्रहण करने के लिए उपस्थित हुए । ज्ञाता धर्म कथा में मेघकुमार के निष्क्रमण सत्कार का भी विस्तार से वर्णन मिलता है । जब भगवान महावीर का उपदेश श्रवण करने के पश्चात मेघकुमार के हृदय में संसार से वैराग्य उत्पन्न हो गया तो वह माता-पिता से अनुज्ञा प्राप्त करने के लिए भवन में गया। फिर वह माता-पिता के चरणों में विनम्रता से नतमस्तक होकर कहने लगा-“हे माता-पिता ! मुझे महावीर का धर्म अत्यंत रुचिकर हुआ है । अतएव आपकी अनुज्ञापूर्वक मैं श्रमण धर्म में प्रव्रजित होना चाहता हूँ ।" यह सुनकर मेघकुमार की माता मूर्च्छित होकर धरती तल पर गिर पड़ी । फिर कुछ समय बाद होश में आने पर विलाप करती हुई बोली - "मेघ ! तुम मेरे इकलौते पुत्र हो, उदुंबर के पुष्प की भाँति दुर्लभ हो। मैं क्षणभर के लिए भी तुम्हारा वियोग सहन नहीं कर सकती । अतएव हम लोगों की मृत्यु के पश्चात ही परिणत वय होने पर तुम दीक्षा ग्रहण करना । " तब मेघकुमार ने उत्तर दिया- “हे माता ! यह जीवन क्षणभंगुर है । न जाने पहले कौन काल की चपेट में आ जाए । इसलिए आप मुझे अभी दीक्षा ग्रहण करने की अनुमति प्रदान करें ।” १. ज्ञाता धर्म कथा (२२९)
SR No.002248
Book TitleJain Agam Sahitya Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size6 MB
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