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________________ मर्छित हो जाते थे। इसी प्रकार की और भी अनेक कठिनाइयाँ उनके सामने रहती थी। फिर भी वे अपनी चर्या का निर्दोष रीति से पालन करने में तत्पर रहते थे। उस काल की विषमताओं और कठिनाइयों का आज के युग में अनुमान ही लगाया जा सकता है। चोर-डाकओं के उपद्रव भी उस काल में कछ कम नहीं थे। रास्तों पर तो वे लूट मार करते ही थे तथा जल और स्थल द्वारा व्यापार करने वाले सार्थवाहों को भी वे लट लेते थे। वे साधुओं को मार डालते थे और साध्वियों को भगाकर ले जाते थे। किसी आचार्य गच्छ का वध कर डालते और संयतियों को जबरन हर कर ले जाते । कभी-कभी ऐसा भी होता कि दिन में ही वे साधुओं पर, उनके विश्राम स्थान पर आक्रमण कर देते और उनकी उपधि (सामान) ले जाते थे। ... विरुद्ध राज्य में गमनागमन से निग्रंथ श्रमणों को दारुण कष्टों का सामना करना पड़ता था। कभी-कभी दो राजाओं में कलह होने से कोई राजा अपने प्रतिद्वन्द्वी राजा द्वारा प्रतिष्ठित आचार्य का राजपुरुषों द्वारा अपहरण करा लेता था । द्वेष रखने वाले राजा अनेक प्रकार से लांछन लगाकर साधुओं को दारुण दुःख देते थे। वे उनका भोजन पान बंद करवा देते थे। राजा ही नहीं, राजकुमार, अमात्य और राजपुरोहित भी प्रद्वेष करने वाले होते थे। निग्रंथ श्रमणों के लिए ठहरने की बहुत बड़ी समस्या थी। अनेक जनपदों में उन्हें स्थान मिलना कठिन हो जाता था। ऐसी दशा में उन्हें वृक्ष, चैत्य या शून्य गृह की शरण लेनी पड़ती थी, लेकिन वहाँ भी ठहरने पर स्त्री या पुरुष द्वारा उपसर्ग किए जाने की आशंका रहती थी। जंगली जानवरों और चोर डाकुओं का भय बना रहता था। सर्प, बिच्छू आदि के काटने की भी संभावना रहती थी। मच्छरों का भी उपद्रव होता था और कुत्ते पात्र उठाकर ले जाते थे। रोगग्रस्त होने पर साधुओं को चिकित्सा के लिए दूसरों पर ही अवलंबित रहना पड़ता था । वैद्य आदि लोभी होने से बिना धन के वे उपचार नहीं करते थे। अति भयंकर दुष्काल पड़ने पर साधुओं को नियम विहित भिक्षा प्राप्त होना कठिन हो जाता था। दुर्भिक्ष कितने भयंकर पड़ते थे, इसका उदाहरण है आगमों की विच्छिन्नता । इन दुर्भिक्षों के कारण श्रमण संघ इतना छिन्न-भिन्न हुआ कि आगमों की अनेक बार वाचनाएँ करने पर भी उनकी पूर्णतया सुरक्षा नहीं हो सकी। इसलिए दुर्भिक्षजन्य उपसर्गों के बारे में विशेष संकेत करने की आवश्यकता नहीं है। ब्रह्मचर्य की सुरक्षा का भी उन दिनों एक विकट प्रश्न था । आगमों में साधुओं को बार-बार उपदेश दिया गया है कि स्त्रियों के संपर्क से सदा बचना चाहिए । जैसे (२२६)
SR No.002248
Book TitleJain Agam Sahitya Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size6 MB
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