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________________ * निग्रंथ श्रमणचर्या का रूप किसी प्रकार की ग्रंथि न रहने के कारण श्रमण निग्रंथ कहलाते हैं । वे प्रतिदिन भिक्षा के लिए जाते और गृहस्थ के पात्र में भोजन करने, शैया, आसन तथा स्नान और शरीर भूषा के त्यागी होते थे। निग्रंथ को निम्नलिखित भोजन पान ग्रहण करने का निषेध किया गया है जो भोजनपान खासतौर पर श्रमण के लिए तैयार किया गया हो (आधा कर्म), जो उद्दिष्ट हो, जो खरीदा गया हो या उठाकर रखा गया हो । इसी प्रकार (दुर्भिक्ष भोजन दर्भिक्ष पीड़ितों के लिए रखा हआ भोजन), कांतार भोजन (जंगल के लोगों के लिए तैयार किया हुआ भोजन), ग्लान भोजन (रोगी के लिए तैयार किया हुआ भोजन) तथा मूल, कन्द, फल बीज और हरित भोजन पान। आहार करने के बारे में बताया है कि आहार करते समय आहार को दाहिने जबड़े से बाये जबड़े की ओर तथा बायें जबड़े से दाहिने जबड़े की ओर न ले जाकर बिना स्वाद लिए ही उसे निगल जाए। * निग्रंथ श्रमणों का संकटमय जीवन निग्रंथ श्रमणों को अपने चारित्र की रक्षा के लिए एक से एक कठिन संकटों का सामना करना पड़ता था। जैसे गमनागमन संबंधी चोर डाकुओं का उपसर्ग, विरुद्ध राज्यकृत उपसर्ग, उपाश्रय संबंधी संकट, रोजगन्य कष्ट, दुर्भिक्षजन्य कष्ट, ब्रह्मचर्य संबंधी कठिनाइयाँ, गणिकाजन्य उपसर्ग और वाद विवाद जन्य उपसर्ग । संक्षेप में इन उपसर्ग एवं संकटमय स्थितियों का चित्रण इस प्रकार है — श्रमणों का गमनागमन धर्म प्रचार का एक महत्वपूर्ण अंग है । एक वर्ष में आठ माह (चातुर्मास छोड़कर) एक स्थान से दूसरे स्थान पर उन्हें विहार करते रहना पड़ता था। आंगमों में बताया है कि निर्ग्रथों को नाना देशों की भाषाओं में कुशल होना चाहिए, जिससे वे उस देश की भाषा में लोगों को धर्मोपदेश दे सकें तथा उन्हें वहाँ की शासन व्यवस्था, अर्थव्यवस्था और लोक जीवन का उन्हें ज्ञान हो । जनपद विहार के समय कितने ही साधु मार्गजन्य कष्टों, उपसर्गों, उपद्रवों के कारण जंगलों में मार्ग भूल जाते थे और उन्हें जंगली जानवर मारकर खा जाते थे। बड़े-बड़े रेतीले प्रदेश, बर्फीले पहाड़ और कंटकाकीर्ण दुर्गम पथों को उन्हें पार करना पड़ता था। कभी-कभी चोर, डाकू उनके पीछे लग जाते थे। अत्यधिक वर्षा के कारण नदी में बाढ़ आ जाने से कई दिन तक मार्ग बंद हो जाता था। रास्ते चलते हुए उनके पैरों में काँटे, गुठलियाँ या लकड़ियों के ढूँढ घुस जाते थे। ऊँचे-नीचे मार्ग, गुफा, गहरे गड्ढों में गिरने से वे (२२५)
SR No.002248
Book TitleJain Agam Sahitya Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size6 MB
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