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पुत्र जन्म अथवा उत्सवों आदि के अवसर पर दासों को दासवृत्ति से मुक्त कर दिया जाता था । कदाचित घर का मालिक प्रसन्न हो कर भी दासियों का मस्तक प्रक्षालन कर उन्हें स्वतंत्र कर देता था। . दासों के बाद भृत्यों का नंबर आता है । इनकी दशा भी कुछ अच्छी नहीं थी, फिर भी दासों की अपेक्षा इन्हें अधिक स्वतंत्रता थी। दासों को जीवन भर के लिए खरीद लिया जाता था, जबकि भृत्यों को मूल्य देकर कुछ समय के लिए ही नौकरी पर रखा जाता था। भृत्य पैसा अथवा जिन्स लेकर मजदूरी करते थे। चार प्रकार के भृत्यों का उल्लेख ग्रंथों में किया गया है- रोजाना मजदूरी लेकर काम करने वाले (दिवस भृतक), यात्रा पर्यन्त सहायता करने वाले (यात्रा भृतक), ठेके पर काम करने वाले(उच्चता भृतक) और अमुक काम पूरा करने पर अमुक मजदूरी लेने वाले (कब्बाल भृतक)।
कुछ घरेलू कामकाज करने वाले नौकर भी होते थे, जो कौटुंबिक पुरुष कहलाते थे। कुछ लोग गोबर हटाने और चूल्हे में से राख हटाने का काम करते थे। कुछ सफाई का और साफ किए हुए स्थान पर पानी छिड़कने का काम करते थे। कुछ अनाज कूटने-पीसने, छड़ने और दलने आदि का काम करते थे। कुछ भोजन पकाते और परोसते थे । अन्य नौकर-चाकरों में अश्वपोषक, हस्तिपोषक, महिष पोषक, सिंह पोषक, व्याघ्र पोषक, अजपोषक, मृग पोषक, घोत पोषक, शूकर पोषक, कुक्कुट पोषक, मेंट्र पोषक, तित्तिर पोषक, हंस पोषक और मयूर पोषक का उल्लेख मिलता है।
- राजा के विविध निजी कार्य करने वालों के लिए अलग-अलग भृत्य होते थे। कोई राजा का अंगरक्षक बनकर राजा के पादमूल में तैनात रहता था । इसके अतिरिक्त राजभृत्यों में छत्रग्राही, पाशक ग्राही, पुस्तक ग्राही, फलक ग्राही, पीठ ग्राही, वीणा ग्राही, कुतुपग्राही, हड़प्पर (धनुष) ग्राही, दीपिक (मशाल) ग्राही आदि का उल्लेख भी मिलता
* व्यापार आयात-निर्यात आदि अर्थोपार्जन के विविध रूप
कृषि धनोपज और अपने राज्य में व्यापार आदि करने से जिनके पास पूँजी हो जाती थी, वे ब्याज, आढ़त, आयात-निर्यात एवं विदेशों में व्यापार द्वारा अर्थोपार्जन करते थे।
उन दिनों में राज्य के पास राष्ट्रीय धन का काफी बड़ा हिस्सा मौजूद रहता था, जिसे टैक्स और जर्माने आदि के रूप में प्रजा से वसूल किया जाता था तथा भौगोलिक परिस्थितियों के कारण बड़े पैमाने पर धन का उपार्जन नहीं होता था और न राज्य की
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