SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 273
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विश्वासघातकों, जुआरियों और धूर्तो को अपने कर्मचारियों से पकड़वा कर उन्हें सीधा लिटवाता और लोहदंड से उनके मुँह खुलवा कर गरम गरम ताँबा, खारा तेल, तथा हाथी घोड़ों का मूत्र उनके मुँह में डालता था । इससे ज्ञात होता है कि तत्कालीन युग में जेल व्यवस्था कितनी भयंकर एवं लोमहर्षक थी। स्त्रियों को भी दंड दिया जाता था। यद्यपि गर्भवती स्त्रियों को क्षमा भी कर दिया जाता था और कभी-कभी प्रसव की अन्य-अन्य प्रकार की यातनाएँ देने के अतिरिक्त मृत्युदंड तक की आज्ञा दी जाती थी। चोरों की भाँति दराचारी पुरुष और स्त्रियों को भी शिरोमुण्डन, तर्जन-ताड़न, लिंगच्छेदन, निर्वासन और मृत्युदंड दिये जाते थे। ब्राह्मणों को दंड देते समय सोच विचार कर काम लिया जाता था। ___चोरी और व्यभिचार की भाँति हत्या भी महान अपराध माना जाता था। हत्या करने वाले अर्थदण्ड और मृत्युदण्ड के भागी होते थे। हत्यारे की हत्या की योजना बनाने वालों का रहस्य खुल जाने पर उन्हें गरम लोहे के सिंहासन पर बिठा कर गरम लोहे के कलशों में भरे हुए खारे तेल से उनका अभिषेक किया जाता था और लोहे के हार और मुकुट पहना कर, उनके नाक-कान कटवा कर उन्हें शूली पर चढ़ा दिया जाता था। * न्याय व्यवस्था न्यायकर्ता के बारे में बताया गया है कि उसे नीतिशास्त्र और दंडनीति में प्रवीण होना चाहिये। उसे रिश्वत नहीं लेनी चाहिये और निर्णय देते समय निष्पक्ष रहना चाहिये । उस काल में न्याय और दंडनीति का विधान बना हुआ था और न्याय व्यवस्था के कठोर नियम भी थे। लेकिन जब राजा की आज्ञा ही सर्वोपरि मानी जाती थी, तब यह कैसे संभव था कि न्याय प्रक्रिया के अनुसार दोषी को दंड मिलता था? साधारण सा अपराध होने पर भी अपराधी को कठोर से कठोर दण्ड दिया जाता था और अनेक बार ऐसा भी होता था कि निरपराधं को दंड दिया जाता था और अपराधी छूट जाता था। चोरी, डकैती परदारागमन, हत्या और राजा की आज्ञा का उल्लंघन आदि अपराध करने वालों को राजा के सामने उपस्थित किया जाता था। कोई मुकदमा ले कर न्यायालय में जाता था, तो उससे तीन बार वही बात पूछी जाती । यदि वह तीन बार एक जैसा उत्तर देता, तो उसकी बात सच मान ली जाती थी। कभी-कभी साधारण सी बात पर भी लोग मुकदमा लेकर राजमहल में पहुँच जाते थे। आज की तरह उस काल में भी झूठी गवाही (कूड सक्ख) और झूठे दस्तावेजों (कूड लेहकरण) को काम में लिया जाता था। (१९८)
SR No.002248
Book TitleJain Agam Sahitya Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy