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(२) परचिकित्सक, न आत्म चिकित्सक- कोई वैद्य दूसरे की चिकित्सा करता है, स्वयं की नहीं। - (३) आत्म चिकित्सक भी, परचिकित्सक भी-कोई वैद्य अपनी चिकित्सा भी करता है और दूसरों की चिकित्सा भी करता है।
(४) न आत्म चिकित्सक, न परचिकित्सक-कोई वैद्य न अपनी चिकित्सा करता है न दूसरों की ही चिकित्सा करता है ।
स्थानांग सत्र २ में कायनैपणिक और चिकित्सानैपणिक का उल्लेख मिलता है। कायनैपूणिक शरीर की इड़ा, पिंगला आदि नाड़ियों का विशेषज्ञ होता था । वर्तमान समय में ऐसे विशेषज्ञ को नाड़ी वैद्य की संज्ञा दी जाती है । चिकित्सा नैपूणिक शारीरिक चिकित्सा करने में कुशल बताया गया है।
ज्ञाताधर्म कथाङ्ग में चिकित्सालय का उल्लेख मिलता है । इन चिकित्सालयों में वेतन भोगी वैद्य तथा अन्य कर्मचारी रोगियों की सेवा-शुश्रुषा के लिए कार्यरत रहते थे। जो उल्लेख है वह इस प्रकार है- “नन्दमणिकार सेठ ने पश्चिम दिशा के वनखण्ड में एक विशाल चिकित्साशाला में बहुत-से वैद्य, वैद्य पुत्र, ज्ञायक (वैद्यशास्त्र न पढ़ने पर भी अनुभव के आधार से चिकित्सा करने वाले अनुभवी), ज्ञायक-पुत्र, कुशल(अपने तर्क से ही चिकित्सा के ज्ञाता) और कुशल-पुत्र आजीविका, भोजन और वेतन पर नियुक्त किये हुए थे। वे बहुत से व्याधितों की, ग्लानों की, रोगियों की और दुर्बलों की चिकित्सा करते रहते थे। उस चिकित्साशाला में दूसरे भी बहुत से लोग आजीविका, भोजन और वेतन देकर रखे गये थे। वे उन व्याधितों, रोगियों, ग्लानों और दुबलों की औषध, भेषज, भोजन और पानी से सेवा शुश्रुषा करते थे।"
आयुर्वेद के प्रकार-जैन आगम साहित्य के परिशीलन से ज्ञात होता है कि आयुर्वेद के आठ प्रकार बताये गए हैं । यथा
(१) कुमारभृत्य या कौमारभृत्य-बाल रोगों का चिकित्साशास्त्र । (२) कायचिकित्सा- शारीरिक रोगों का चिकित्साशास्त्र ।
(३) शालाक्य- शलाका के द्वारा नाक, कान आदि के रोगों का चिकित्साशास्त्र।
(४) शल्यहत्या या शाल्य हत्या-आयुर्वेद का यह अंग जिसमें शल्यकंटक गोली आदि निकालने की विधि का वर्णन किया गया है । शस्त्र द्वारा चीरफाड़ करने का शस्त्र।
१. वही, ४/४/५१७ २. स्थानांग सूत्र ९/२८ ३. ज्ञाता १३/१७ ४. स्थानांग सूत्र, ८/२६, विपाक सूत्र, १/७/८
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