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________________ में जन्म मिलता है तथा यक्ष, देव, दानव आदि शीलव्रत धारकों-ब्रह्मचारियों को नमस्कार करते हैं। __ आगमों में पूर्णभद्र, मणिभद्र, श्वेतभद्र, हरितभद्र, सुमनोभद्र, व्यतिपातिकभद्र, सुभद्र, सर्वतोभद्र, मनुष्य यक्ष, वनाधिपति, वनाहार, रूप यक्ष और यक्षोत्तम इन तेरह प्रकार के यक्षों का उल्लेख है। इनमें पूर्णभद्र और मणिभद्र का विशेष महत्व है। ये शुभ कार्यों में सहायक होते हैं और हानि भी पहुँचा सकते हैं। संतानोत्पत्ति के लिए भी यक्ष की आराधना की जाती थी । संतान की अभिलाषा पूर्ण करने में हिरणगमेषी देव का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। ___यक्षों के अतिरिक्त वाणव्यंतर, वाणव्यंतरी और गुह्यक आदि के भी आगम साहित्य में उल्लेख मिलते हैं। आगम में पिशाच, भूत, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, महोरग और गंधर्व तथा इनके आठ चैत्य वृक्षों के नामों का उल्लेख है । वाणव्यंतरियों में से कोई एक व्यंतरी भगवान महावीर की भक्त थी, जबकि कठपूतना व्यंतरी ने उन्हें बहुत कष्ट पहँचाया था । गुह्यकों के बारे में लोगों का विश्वास था कि वे कैलाश पर्वत पर रहने वाले हैं और इस लोक में श्वानों के रूप में निवास करते हैं। आर्या और कोट्टकिरिया दोनों दुर्गा के ही रूप हैं, जिसे चंडिका या चामुण्डा भी कहा जाता है । युद्ध के लिए जाते समय लोग चामुण्डां को प्रणाम करते थे। * जादू-टोना और अंधविश्वास जादू-टोना और अंधविश्वास आदि काल से सामाजिक जीवन के महत्वपूर्ण अंग रहे हैं। कितने ही मंत्र, मोहिनी विद्या, जादू-टोटका आदि का उल्लेख आगमों में मिलता है, जिनके प्रयोग से रोगी चंगे हो जाते, भूत-प्रेत भाग जाते, शत्रु हथियार डाल देते, प्रेमी और प्रेमिका एक-दूसरे की ओर आकर्षित होते, स्त्रियों के भाग्य का उदय हो जाता, युद्ध में विजयश्री प्राप्त होती और गुप्त धन मिल जाता था। चतुर्दश पूर्वो में जो विद्याप्रवाद पूर्व का नाम आता है, उसमें विविध मंत्र और विद्याओं का वर्णन किया गया है। आगम में विद्या, मंत्र-तंत्र का उपयोग करने का श्रमणों को निषेध किया गया है, लेकिन कुछ ग्रंथों में संकट आदि उपस्थित होने पर उनके उपयोग के उल्लेख मिलते हैं । विद्या प्रयोग और मंत्र चूर्ण के अतिरिक्त लोग हृदय को आकर्षित करके जादू-मंतर का प्रयोग करते थे । आगम साहित्य में जादू-टोना और झाड़-फूंक आदि का भी विधान मिलता है । स्नान करने के बाद लोग प्राय: कौत्क (काजल का तिलक आदि लगाना, आजकल भी माताएँ बच्चों को दिठौना लगती हैं ।), मंगल (सरसों, दही, अक्षत और दूर्वा आदि का प्रयोग) और प्रायश्चित आदि क्रियाएँ करते थे। कौतुक, मूर्तिकर्म, प्रश्न, (१७२)
SR No.002248
Book TitleJain Agam Sahitya Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size6 MB
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