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________________ इन चारों वर्गों की उत्पत्ति के बारे में जैन परम्परा की यह मान्यता है कि भगवान ऋषभदेव के काल में राज्य के रक्षक लोगों को क्षत्रिय और जमींदार व साहूकारों को गृहपति कहा जाता था । तत्पश्चात अग्नि की उत्पत्ति होने पर ऋषभदेव के आश्रित रहने वाले शिल्पी वणिक कहे जाने लगे तथा शिल्प का वाणिज्य करने के कारण वे वैश्य के नाम से भी प्रसिद्ध हुए। भरत के राज्य काल में श्रावक धर्म की व्यवस्था होने पर माहण 'ब्राह्मण' की उत्पत्ति हुई । ब्राह्मण लोग अत्यन्त सरल स्वभावी और धर्म प्रेमी थे। इसलिए जब वे किसी को मारते-पीटते या वेदना पहुँचाते देखते, तो कहतेमा हण अर्थात् मत मारो । तबसे ये माहण याने ब्राह्मण कहलाने लगे। उस काल में यह भेद जन्म से जुड़ा नहीं था। भिन्न-भिन्न वर्गों के संमिश्रण से बनी हुई मिश्रित जातियाँ उस समय मौजूद थीं, लेकिन उत्तर काल में वर्ण व्यवस्था कर्म के बजाय जन्म के साथ जुड़ गई। परिणामत: वर्ण संघर्ष एवं जन्म कृत उच्च, नीच, कुलीन, अकुलीन आदि की मान्यताओं के लिए आगमों में अनेक उल्लेख मिलते हैं। * ब्राह्मणों के संबंध में जैन मान्यता का दृष्टिकोण - जैन आगमों में जन्म की अपेक्षा कर्म पर अधिक जोर दिया गया है। वहाँ बताया गया है कि सिर मँडाने से कोई श्रमण नहीं होता, ऊँ कार का जाप करने से कोई ब्राह्मण नहीं होता, जंगल में रहने से कोई मुनि नहीं होता और न कुशचीवर धारण करने से कोई तपस्वी ही होता है । समता धारण करने वाला श्रमण होता है, ब्रह्मचर्य का पालन करने वाला ब्राह्मण होता है, पापोपदेश न देने वाला-मौन धारण करने वाला मुनि होता है और तप करने वाला तपस्वी-तापस होता है । वास्तव में मनुष्य अपने कर्म से जिस प्रकार का कार्य करता है, उस कर्म से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र कहलाता है। इसके लिए उत्तराध्ययन के 'हरि' के अध्ययनगत हरिकेश नामक चाण्डाल मनि की कथा उदाहरण है । वहाँ यज्ञ के लक्षण बताते हए कहा गया है- वास्तविक अग्नि तप है, अग्निस्थान जीव है, श्रुवा (चाटू, जिससे अग्नि में आहुति दी जाती है) मन, धन व काम का योग है, करीष (कंडे की अग्नि) शरीर है, सविधा कर्म है, होम संयम और योग शान्ति है, सरोवर धर्म है और वास्तविक तीर्थ ब्रह्मचर्य है। तात्पर्य यह है कि जैन परम्परा ने वर्ण और जाति की निन्दा की है, फिर भी वह जाति-पाति के बँधनों से स्वयं को सर्वधा मुक्त न कर सकी। जाति आर्य और जाति-जुंगित (जुगुप्सित), कर्म आर्य और कर्म जुतांत, शिल्प आर्य और शिल्प जुतांत में से भेद हटाकर ऊँच-नीच के भेद को स्वीकार किया है। (१६५)
SR No.002248
Book TitleJain Agam Sahitya Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size6 MB
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